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वाले में विद्यमान है इस सबब से कितनेही वर्षोंतक जमीतराय, और जोधामल्लकी संतानका * आपस में मोहबतका बरताव रहा.
भवितव्यता के बशसें “राजकुंवर" और "जमीतराय" तो अपने वतन चलेगये. और "गणेशचंद - जी" लेहरा गाम मेंही रहने लगे, और वहांही बिक्रम संबत् १८९३ चैत्रशुदि प्रतिपदा गुरुवार के रोज " श्री आत्मारामजीका " "रूपादेवी" माताकी कूख से जन्म हुआ. श्री आत्मारामजीकी माता पिताने ब्राह्मणोंसे पूछके " आत्माराम " नाम रखा.
जन्म कुंडली नष्टोद्दिष्टसे ॥
बु.शु.सू.
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४ मं. बृ.
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इस समय (लेहरागाम ) " अतरसिंघ "नामा " सोढी " (शीखलोकोंके गुरू) के ताबेमें था. इस सबबसे सोढी अतरसिंघ, और रा.चं. " गणेशचंदजीकी " आपसमें बहोत प्रीति थी. एक दिन सोढी अतरसिंघने श्री आत्मारामजीको माता. रूपादेवीकी गोद में देखा, और बुद्धिके प्रभावसे ऐसा निश्चय किया कि, यह बालक बडा तेजप्रतापवाला होवेगा. पिछे अतरसिंघ सोढीने कहा कि “ इस बालकके ऐसे सुंदर लक्षण हैं कि, जिससे यह लडका बडाभारी राजा होवेगा ! अथवा ऐसा साधु होवेगा कि, जिसके चरणों के राजा महाराजा भी सेवक होवेंगे ! और यह लड़का किसी तरह भी तुमारे पास नहीं रहेगा. इस लिये यह लडका तुम मुझे दे दो; और मैं इसको अपनी कुल मिलकतका मालिक करूंगा, " परंतु माता पिताने यह बातको स्वीकार नहीं किया. तथापि सोढी अतरसिंघ के दिलसे यह बात दूर नही हुई, बलकि निरंतर इसही बातका ख्याल रखता रहा, और श्री आत्मारामजीसे बहुत प्यार करता रहा. ठेकेदार राजकुंवरके वतन पहुंचने से गणेशचंदजीके भाई लक्खुमल्ल और चाचेके पुत्र देवीदत्तामलको गणेशचंदजीका पता बहोत कालके पीछे मालूम होनेसे दिल खुश होगया. और उसी बखत अपने भाई “ गणेशचंदजी " को अपने वतन 'जानेके लिये आये. अपने भाई गणेशचंदजीको देखतेही बहुत खुश होगये.
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दोहा - पाया प्रतिहि बियोगसे, जसतन दुःख भरपूर ॥ फिर मिलने से वोही तन, पावे सुख भरपूर ॥ १ ॥
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श. के.
गणेशचंदजीकी गोद में छोटी उमरवाले बडे तेजवाले अपने भाई के पुत्र श्री आत्मारामजीको देखके बहुतही प्रसन्न हुये. और दोनों भाइयोंने अपने भाई गणेशचंदजीको अपने वतन लेजाने के वास्ते बहुत मेहनत की; परंतु इस देशकी मोहबत, और दाना पानीने गणेशचंदजीको किसी तरह भी जाने न दिया. इस वास्ते लाचार होके कितनके दिन वहां रहके अपने वतनको चलेगये. और चलने के समय अपने भाईके पुत्र श्रीआत्मारामजीका नाम, “ दित्ता " रखगये और कहते गये कि, "इस बालकका अच्छी तरह ख्याल रखना. " " रत्नंयत्नेनरक्षयेत्" भावार्थ-रत्नकी यत्न
* विक्रम संवत् १९३७ में जब श्रीआत्मारामजी महाराजजीका चौमासा शहेर गुजरांवालेमें था, तब जोधामल्लकी संतान के राधामल्ल और हरदयालमल्ल श्रीमहाराजजीके दर्शन के वास्ते गये थे, तब पिछली मुलाकतके सबबसे जमीतराय, उनसे बहोत महोबत से मिला था. बलकि देशाचारके अनुसार राधामल्लके बेटे ईश्वरदास और बशाखीमल्लके पुत्र हरदयालमल्ल को कपडे और मिठाई वगैरह दी थी.
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