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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
ऐसें नियम देके यह गाथा उच्चारण करवावे ॥
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अरिहंतो मह देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपणत्तं तत्तं इअ समत्तं मए गहिअं ॥ १ ॥ सुगमां ॥
तदनंतर अरिहंतको वर्जके अन्यदेवको नमस्कार करनेका, जिनयति महाव्रतधारी शुद्ध प्ररूपकको वर्जके अन्य यति विप्रादिकोंको भावसें अर्थात् मोक्षलाभ जानके वंदना करनेका, और जिनोक्त सप्त तत्त्वको वर्जके + तत्त्वांतर की श्रद्धा करनेका, नियम करना.
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देव और अन्य लिंगि विप्रादिकोंको नमस्कार और दान, लोकव्यवहार के वास्ते करना. और अन्यमतके शास्त्रका श्रवण पठन भी, ऐसेंही जानना । तदपीछे गुरु सम्यक्त्वकी देशना करे. ।
सा यथा ॥
मानुष्यमार्यदेशच जातिः सर्वाक्षिपाटवम् ॥ आयुश्च प्राप्यते तत्र कथंचित्कर्मलाघवात् ॥ १ ॥ प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा कथकः श्रवणेष्वपि ॥ तत्त्वनिश्चयरूपं तद्बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥ २ ॥
गाथा ||
कुसमयसुईण महणं सम्मत्तं जस्स सुट्टि हिय ॥ तस्स जगुज्जोयकरं नाणं चरणं च भवमहणं ॥ १ ॥ अर्थः- मनुष्यजन्म १, आर्यदेश २ उत्तमजाति ३, सर्वइंद्रि संपूर्ण ४, नायु: ५, येह कथंचित् कर्मकी लाघवतासें प्राप्त होवे है । पुण्योदयसें प्राप्ति हुये भी श्रद्धा ९, शुद्ध प्ररूपकका जोग २, और सुणनेसें पत्वनिश्चयरूप बोधिरत्न सम्यक्त्व ३, येह अतिही दुर्लभ हैं. ॥ कुत्सितस एकांतवादियोंके शास्त्र तिनकी श्रुतियोंको मथन करनेवाला सम्यक्त्व, • + पुण्य और पापको आश्रवतत्त्व के अंतर्गत गिणनेसें सप्त तत्त्व, अन्यथा नव तत्त्व जाणने जिनका तरूप जनतत्त्वादर्शके पचम परिच्छेद में हैं.
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