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तत्त्वनिणयप्रासादअहेवय असया असहस्सं च अट्टलक्खं च ।। अट्टेवय कोडीओ सो तइयभवे लहइ सिद्धिं ॥३३॥ एसो परमो मंतो परमरहस्सं परंपरं तत्तं ॥ नाणं परमं णे सुद्धं ज्झाणं परं ज्झेयं ॥३४॥ ग्वं कवयमभेयं खाइयमच्छं पराभुवणरक्खा ॥ जोईसुन्नं बिंदु नाओ तारालवो मत्ता॥३५॥ सोलसपरमक्खरबीअबिंदुगप्भो जगुत्तमो जोओ॥ सुअबारसंगसायरमहच्छपुवच्छपरमच्छो ॥३६॥ नासेइ चोरसावयविसहरजलजलणबंधणसयाई ॥ चिंतिज्जंतो रक्खसरणरायभयाइं भावेण ॥३७॥
॥ इतिअरिहणादिस्तोत्रम् ॥ इस अरिहणादि स्तोत्रको पढके " जय वीयराय जगगुरु०” इत्यादि गाथा पढे । पीछे आचार्य उपाध्याय गुरु साधुयोंको वंदना करे। यह शकस्तवविधि, गुरु और श्रावक दोनोंही करे. । चैत्यवंदनके अनंतर, श्राद्ध, क्षमाश्रमणदानपूर्वक कहे.
“॥भगवन् सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामा यिकआरोवणि नंदिकट्ठावणि काउसग्गं करेमि।"
गुरु कहे “ करह” तब श्रावक “सम्मत्ताइतिगारोवणिअं करेमि काउसग्गं अनच्छ०" इत्यादि कहके सत्ताइस ऊसास प्रमाणअर्थात् 'सागरवरगंभीरा लग कायोत्सर्ग करे। पीछे नमो अरिहंताणं कहके पारके चतुविशतिस्तव अर्थात् लोगस्स संपूर्ण पढे । पीछे मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनपूर्वक श्रावक द्वादशावर्त वंदन करे, फिर क्षमाश्रमण देके कहे “ भगबन् सम्मत्ताइतिगं आरोवेह” गुरु कहे “ आरोवेमि” पीछे श्रावक गुरुके आगे खडा होके, अंजलि करी, मुखवस्त्रिकासें मुखाच्छादन करी, तीन बार परमेष्ठिमंत्र पढे। पीछे सम्यक्त्वदंडक पढे.
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