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षड्विंशस्तम्भः।
४०३ योगे अमुककरणे अमुकमुहूर्ते पूर्वकर्मसंबंधानुबद्धवस्त्रगंधमाल्यालंकृतां सुवर्णरूप्यमणिभूषणभूषितां ददात्ययं प्रतिग्रहीष्व ॥" ऐसें कहके वधूवरके योजित हाथमें जलक्षेप करे.। तब वर कहे. "प्रतिगृह्णामि " तदनंतर गुरु कहे.
“॥सुप्रतिगृहीतास्तु शांतिरस्तु पुष्टिरस्तु ऋद्धिरस्तु वृद्धिरस्तु धनसंतानटद्विरस्तु॥”
तदपीछे प्रथम तीन लाजामें वरके हाथ ऊपर रहे कन्याके हाथको नीचे करे, और वरके हाथको ऊपर करे. । पीछे वरवधूको आसनसें ऊठाकर वरको आगे करे, और वधूको पीछे करे. । पीछे लाजाकी मुष्टि अग्निमें प्रक्षेप करके गुरु ऐसें कहे. “प्रदक्षिणीक्रियतां विभावसुः ” वरवधूको प्रदक्षिणा करते हुए, कन्याका पिता, यावत् कन्याका कुलज्येष्ठ, वा वरवधूके देनेयोग्य वस्त्र, आभरण, स्वर्ण, रूप्य, रत्न, ताम्र, काश्य, भूमि, निःक्रय, हाथी, घोडा, दासी, गौ, बैल, पल्यंक, तूलिका, उत्सीर्षक, दीप, शस्त्र, पाकके भांडे, आदि सर्व वस्तुको वेदिमें ल्यावे. । और भी तिसके भाइ, संबंधी, मित्रादि, स्वसंपदाके अनुसारसे पूर्वोक्त वस्तुयों वेदिमें ल्यावें । तदपीके प्रदक्षिणाके अंतमें वरवधू, तैसेंही आसन ऊपर बैठें. । नवरं इतना विशेष है कि, चतुर्थ लाजाके अनंतर वरका आसन दक्षिण पासे, और धूका आसन वामे पासे करणा.। तदपीछे गृह्यगुरु, कुश दूर्वा अक्षत पान करके हस्त पूर्ण हुआ थका, ऐसें कहे.
“॥शक्रादिदेवाकोटिपरिटतो भोग्यफलकर्मभोगाय संसारिजीवव्यवहारमार्गसंदर्शनाय सुनंदासुमंगले पर्यणैषीत् ज्ञातमज्ञातं वा तदनुष्ठानमनुष्ठितमस्तु ॥”
ऐसें कहके वास, दूर्वा, अक्षत, कुशको वरवधूके मस्तक ऊपर क्षेप करे. । तदपीछे गृह्यगुरुके कहनेसें वधूका पिता, जल, यव, तिल, कुशको
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