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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
उक्तंच॥ सकृजल्पन्ति राजानस्सकृञ्जल्पन्ति पण्डिताः ॥ सकृत् प्रदीयते कन्या त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥ १ ॥
राजाओं एकवार बोलते हैं, पंडित जन एकवार बोलते हैं, कन्या एकवार देइए हैं. पूर्वोक्त तीन कार्य एकएकहीवार होते हैं. ॥ तथा वर भी, तिस कन्याको वस्त्र, आभरण, गंधादिउत्सवसहित, तिसके पिताके घरमें देवे. । कन्याका पिता भी, परिजनसंयुक्त वरको, महोत्सवसहित वस्त्र मुद्रिकादि देवे.
लग्नदिनसे पहिले मासमें, वा पामें वैयग्र्यानुसारें दोनों पक्षोंके स्वजनोंको एकठे करके, सांवत्सर-ज्योतिषिकको उत्तम आसनऊपर बिठलाके, तिसके हाथसें विवाहलग्न भूमिके ऊपर लिखवावे; और रूप्य, स्वर्णमुद्रा, फल, पुष्प, दूर्वा करके जन्मलग्नवत् विवाहलग्नको पूजे. । पीछे ज्योतिषिकको दोनों पक्षोंके वृद्धने वस्त्रालंकार तांबूलदान देवें. इति विवाहारंभः ॥ __ तदपीछे कोरे शरावलोंमें यव बोवने । पीछे कन्याके घरमें मातृस्थापना, और षष्ठीस्थापना, षष्ठी आदि प्रक्रमोक्त प्रकारसें करना. । वरके घरमें जिनसमयानुसारियोंको मातृस्थापन, और कुलकरस्थापन करना। परमतमें गणपति, कंदर्प स्थापन करते हैं.सो सुगम, और लोक प्रसिद्ध है।
अथ कुलकर स्थापनविधि कहते हैं. ॥ गृह्यगुरु भूमिपर पडे गोमय (गोबर ) करके लीपी हुई भूमिमें, स्वर्णमय, रूप्यमय, ताम्रमय, वा श्रीपर्णीकाष्ठमय, पट्टा, स्थापन करे. । पट्टकस्थापन मंत्रः
“॥ॐ आधाराय नमः आधारशक्तये नमः । आसनाय नमः॥" इस मंत्रकरके एकवार मंत्रके पट्टेको स्थापन करके, तिस पढेको अमृतामंत्रकरके तीर्थजलोंसें अभिषिचन करे. । पीछे चंदन, अक्षत, दूर्वाकरके पट्टेको पूजे.। पीछे आदिमें
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