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तत्वनिर्णयप्रासादएवं खलु, अरहता वा, चक्कबलवासुदेवा वा, उग्रकुलेसु वा, भोगकुलेसुवा, राइन्नकुलेसु वा, खत्तियकुलेसु वा, इरकागकुलेसु वा, हरिवंसकुलेसु वा, अन्नयरेसु वा, तहप्पगारेसु विसुद्ध जाइकुलवंसेसु आया इंसु वा, आयाइंति वा, आयाइस्संति वा, अच्छि पुण एसेवि भावे, लोगच्छेयभूए, अणंताहिं उसप्पिणि ऊसप्पिणीहिं वइकंताहि, समुपद्यइ, नामगुत्तस्स, वा, कम्मस्स, अरकीणस्स, अवेइयस्स, आणधिणस्स, उदण्णं, जन्नं, अरहंता वा, चक्कबलवासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा, पंतकिविणतुच्छदारिद भिरकागमाहणकुलेसु वा, आयाइंसुं वा, आयाइंति वा, आयाइस्संति वा; नो चेव णं, जोणीजम्मणनिरकमणेणं निरकमिंसु वा, निक्खमंति वा, निक्खमिस्संति वा. तं जीअमेअं, तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं सक्काण, देविंदाणं, देवराईणं, अरहते भगवंते, तहप्पगारेहितो, अंतकुलेहिंतो, पंतकुलेहिंतो, तुच्छदरिदकिविण भिक्खागमाहणकुलहितो; तहप्पगारेसु उपभोगरायन्नखत्तियइरकागहरिवंसकुलेसु वा, अन्नयरेसु वा, तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु साहरावित्तए.॥” * तिसवास्ते कार्तिकशेठ कामदेवा दिवैश्योंको भी उपनयन जिनोपवीत धारण करणा, । आनंदादि शुद्रोंको भी उत्तरीय धारण करणा. । शेष वणिगादिकोंको उत्तरासंगकी अनुज्ञा है. जिनोपवीत जो है सो भगवान् जिनकी गृहस्थपणेकी मुद्रा है,। सर्व बाह्य अभ्यंतर कर्मविमुक्त निर्मथ यतियोंको तो, नव ब्रह्मगुप्तिगुप्ताज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रयी, हृदयमेंही है. क्योंकि, मुनिजन सर्वदा तद्भावनाभावितही होते हैं. इसवास्ते नवब्रह्मगुप्तियुक्तरत्नत्रयी सूत्ररूप बाह्यमुः द्राको नहीं धारण करते हैं, तन्मय होनेसें. नही समुद्र, जलपात्रको हस्तमें करता है. । नही सूर्य दीपकको धारण करता है. यत उक्तम् ॥
अग्नौ देवोस्ति विप्राणां हृदि देवोस्ति योगिनाम् ॥
प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र विदितात्मनाम् ॥१॥ * इस पाठका भावार्थ यह है कि पूर्वोक्त अंतादिकुलमें अरिहंतादि नही उत्पन्न होते हैं, किंतु उग्रादि उपनयवादिसंयुल कुलमें उत्पन्न होते हैं, शुद्ध होनेसें. ॥
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