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________________ दशमस्तम्भः २७९ कि, जो मनमें आवे सोही गप्प ठोक देनी-हां दयानंदसरस्वतीजीने मृषा बोलने और लिखनेमें किंचित् न्यूनता नहीं रक्खी है तो, तिनके शिष्य गप्पें मारे और लिखे, लिखावें, इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि गुरुका ज्ञान जैसा होता है, तिनके शिष्योंका भी प्रायः तैसाही ज्ञान होता है. क्या जैनमती वा सनातनवेदधर्मी, हजारों पंडितोंमेंसें कोइ भी कह सक्ता वा मान सक्ता है? कि, सायणमाधवाचार्य जैनमती था. क्योंकि, तिसके रचे भाष्य, शंकरविजय सर्वदर्शनसंग्रहादि ग्रंथोंके वांचनेसे स्पष्ट मालुम होता है कि, वो जैनमतसें विपरीतमतवाला था, बलदि जैनमतके खंडन करनेमें तत्पर था. यद्यपि उनोंने वेदभाष्यमें अपने मतानुसार श्रुतियोंके अर्थ, और कितनेक अटकलपनुके अर्थ, और कितनेक यथार्थ अर्थ लिखे हैं, तो भी सायणमाधवकी विद्वत्ता आगे दयानंदसरस्वतीकी पंडिताइ ऐसी है, जैसा मेरुआगे सरसव. जेकर सायणाचार्यका भाष्य न होता तो, हम देखते कि, दयानंदसरस्वतीजी कैसे भाष्य रचे लेते? यह तो तिनके भाष्यकोंही देखके दयानंदसरस्वतीजीने अपनी बुद्धिका अजीर्ण दिखाया है. जेकर सायणाचार्य जैनमती होता तो, सर्ववेदोंके अर्थ जैनमतानुयायी कर दिखलाता. क्योंकि, जैनमतके आचार्योंकी ऐसी विद्वत्ता थी कि, जो वे इच्छते तो सर्ववेदोंके अर्थ उलटाके जैनमतानुयायी कर देते; परंतु तिनको क्या आवश्यकता थी, जो हिंसकपुस्तकोंके अर्थ उलटाके जैनमतानुयायी करते? जैनीयोंके सर्वज्ञोंके कथन करे हुए ऐसे २ अद्भुत पुस्तक हैं कि, जिनके आगे वेदवेदांतके पुस्तक क्या वस्तु है ? थोडासा जैनमतके आचार्योंकी बुद्धिका वैभव हम वाचकवर्गके जाननेवास्ते, अगले स्तंभमें लिखेंगे. इत्यलं बहुपल्लवितेन ॥ इत्याचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे वेदा नामीश्वरकर्तृत्वनिषेधवर्णनो नाम दशमः स्तम्भः ॥१०॥ 3DC Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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