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नवमस्तम्भः ।
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लोकोंको धारण करता है, इसवास्ते प्रजापति देवकेलिये हम हविःप्रदान करते हैं.
[समीक्षा] यह भाष्यकारका अर्थ पूर्वोक्त अर्थोंसें विलक्षणही है, तथा यजुर्वेद अध्याय १७ के मंत्रसें भी विरुद्ध है. तथा इसश्रुतिसें मालुम होता है कि, इसका कहनेवाला परमात्मा प्रजापतिसें भिन्न है. क्योंकि, इसमें लिखा है कि, जो हिरण्यगर्भ सृष्टिसें पहिले आप शरीरधारी हुआ, जो उत्पन्न होनेवाले सर्वजगत्का पति हुआ, और तीन लोककों जो धारण करता है, तिस प्रजापतिदेवकेलिये, हम, हविःप्रदान करते हैं, इत्यादि.
प्रजाप
तथा इसी श्रुतिका अर्थ ऋग्वेद अष्टक ८ | अ० ७| व० ३ । मं० १० । अ० १० सू० १२१ में सायणाचार्यने ऐसें लिखा है— हिरण्मय अंडका गर्भभूत जो प्रजापति सो कहावे हिरण्यगर्भ, तथा च तैत्तिरीयकं - " तिर्वै हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपत्वायेति । ” अथवा हिरण्मय अंड गर्भवत् है उदरमें जिसके, ऐसा जो सूत्रात्मा, सो कहावे हिरण्यगर्भ. सो हिरण्यगर्भ (अग्रे) प्रपंचोत्पत्ति के पहिले (समवर्तत ) मायावशसें सृजन कर - नेकी इच्छावाले परमात्मासें उत्पन्न होता भया. यद्यपि परमात्माही हिरण्यगर्भ है, तो भी, तदुपाधिभूत आकाशादि सूक्ष्मभूतोंको ब्रह्मसें उत्पन्न होनेसें तदुपहित भी उत्पन्न हुआ ऐसें कहीए हैं. सो हिरण्यगर्भ (जातः ) जातमात्रही, उत्पन्न हुआ थकाही ( एकः ) अद्वितीय एकेलाही ( भूतस्य ) विकारजात ब्रह्मांडादि सर्वजगत्का ( पतिः ) ईश्वर ( आसीत् ) होता भया. नही केवल पतिही हुआ, किंतु सो हिरण्यगर्भ ( पृथिवीं ) वीस्तीर्ण ( द्यां ) स्वर्गलोककों ' उतापिच' और ( इमां ) हमारे दृश्यमान पुरोवर्त्तिनी इस भूमिको, अथवा 'पृथिवीं' आकाशको स्वर्गलोकको और भूमिको ( दाधार ) धारयति - धारण करता है ( कस्मै ) यहां किं शब्द अनिर्ज्ञातस्वरूपवाला होनेसें प्रजापतिमें वर्तता है। अथवा सृष्टिके वास्ते जो कामना करे सो कहावे कः । अथवा कं सुखं अर्थात् सुखरूप होनेसें कः कहीए हैं। अथवा इंद्रने पूछा हुआ प्रजापति, मेरा महत्व
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