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तत्त्वनिर्णयप्रासाद है. और मन जो है, सो ज्ञानरूप अरूपि चेतन है. ज्ञानांश होनेसें. तिस भावमनसें पृथिवीमय रूपी पुद्गलरूप चंद्रमा कैसें उत्पन्न होवे ? तथा नेत्रोंसें सूर्य उत्पन्न हुआ लिखा है, सो भी प्रमाण विरुद्ध है. क्योंकि सूर्य भी पृथिवीमय आतपनामकर्मके उदयवाले पृथिवीके जीवोंके शरीरोंका पिंडरूप देवतायोंके रहनेका विमान है. ये दोनो प्रवाहकी अपेक्षा अनादि अनंत है, नवीन २ जीव तैसे शरीवारले समय २ में असंख्य उत्पन्न होते हैं और समय २ में असंख्य जीव पृथिवीके मृत्युको प्राप्त होते हैं; परंतु चंद्रमा सूर्य वैसके वैसेंही रहते हैं, दीपशिखावत्. जैसें दीपशिखामें नवीन २ अग्निके जीव उत्पन्न होते हैं, और अगले २ मृत्युको प्राप्त होते हैं. विशेष इतनाही है कि, चंद्रमासूर्यका प्रवाह अनादि अनंत है, और दीपकका प्रवाह सादि सांत है. ऐसे चंद्रमासूर्यको ब्रह्माजीके मन और नेत्रोंसे उत्पन्न हुए मानना, यह भी अज्ञानविजूंभितही है.
मुखसे इंद्र और अग्नि देवते उत्पन्न हुए, यह भी प्रमाणयुक्तिबाधित है. क्योंकि, इंद्रकी उत्पत्ति तो स्वर्गमें देवशय्यासें होती है, और अग्नि इंधनसें उत्पन्न होता है. एक और भी बात है कि, यदि ब्रह्माजीके मुखसें इंद्र उत्पन्न हुआ, तब तो ब्राह्मण और इंद्र इन दोनोंकी एक योनि भइ, तब तो जैसें इंद्र अमर अजर है, ऐसे ब्राह्मण भी होने चाहिये. और जैसें ब्राह्मण याचक है, ऐसे इंद्रको भी भिक्षा मांगनी चाहिये !!!
प्रजापतिके प्राणोंसें वायु उत्पन्न हुआ, और नाभिसें आकाश उत्पन्न भया, यह भी कथन अज्ञानविजूंभितही है. क्योंकि, जब आकाशही नहींथा, तब ब्रह्म कहां रहता था ? आकाशनाम शून्य पोलाडका है, जब पोलाड नही थी तो, तिसका प्रतिपक्षी घनरूप कोई वस्तु होना चाहिये; सो वस्तु भी आकाशविना नहीं रह सकता है. और युक्तिप्रमाणसें तो, आकाश अनादि अनंत सर्वव्यापक है. जो कुछ पदार्थ है, सो सर्व इसके अंदर है. और गौतम, कणाद, जैमिनी, जैन, ये सर्व आकाशको नित्य अ
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