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तत्त्वनिर्णयप्रासादममें लय होके परमानंदकों भोगता है, जब सुषुप्तिमें यह दशा है तो, प्रलयरूप महासुषुप्तिमें तो परमानंदका क्या कहना है ? इससे तो जब ईश्वर सृष्टि रचता है, तब जीवोंके परमानंदका नाश करता है, यह सिद्ध होता है. तो फेर, ईश्वर सृष्टि क्यों रचता है ?
पूर्वपक्षः--जेकर ईश्वर सृष्टि रचके जीवोंकों कर्मफल न भुक्तावे, तब तो ईश्वरका न्यायशीलता गुण रहे नही, जगत्में न्यायाधीश होके जो बुरेको सजा न देवे सो न्यायाधीश नहीं है.
उत्तरपक्षः--वेदमतमें तो एक ब्रह्मके विना अन्य कोइ जीवात्मा हेही नही तो, क्या ब्रह्म आपही न्यायाधीश बनता है ? और आपही अशुभ कर्म करके सजाका पात्र होके दंड लेता है ? यह तो ऐसा हुआ, जैसे किसीने आपही पापकर्म करे, और तिनके फल भोगनेवास्ते अपने हाथसेंही अपने नाक कान हाथ पग मस्तकादि छेदन कर डाले; इससे तो, ब्रह्म प्रथम पाप न करता, तथा ईश्वर अन्य जीवोंकों नवीन पाप न करने देता, तब तो सदाकाल प्रलयदशाही रहती. न तो सृष्टि रचनी पडती, और न सृ. टिका संहार करना पडता, और न जीवोंकों कर्मका फल देना पडता, सदाही परमानंद भोगता रहता. यह तो ब्रह्मने सृष्टि क्या रची, आपही अपने पगमें कुहाडा मारा! ऐसे अज्ञानीकों कौन बुद्धिमान् ब्रह्मेश्वर मान सक्ता है ? इसवास्ते जो प्रलयका स्वरूप श्रुतियोंने कहा है, सो केवल प्रलापमात्र है; युक्तिविकल होनेसे. ॥ इति प्रलयसमीक्षा ॥ चौथी श्रुतिमें लिखा है कि, परमात्माके मनमें सृष्टि रचनेकी इच्छा उत्पन्न भइ, यह कहना भी मिथ्या है, क्योंकि, शरीरके विना कदापि मन नही होता है, शरीरविना मन है ऐसा सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्ष, वा अनुमानादिप्रमाण नहीं है. परंतु शरीरविना मन नहीं, ऐसा तो प्रत्यक्ष अनुमानसें सिद्ध हो संक्ता है. और मनविना इच्छा कदापि सिद्ध नही इसवास्ते प्रलयदशामें भी ब्रह्मके शरीर होना चाहिए; जेकर प्रलयदशामें भी ब्रह्मके शरीर मानोंगे, तब तो यह प्रश्न उत्पन्न होवेगा कि, शरीर ब्रह्मके साथ अनादिसें संबंधवाला है कि, आदिसंबंधवाला है? जेकर अनादि संबंधवाला है, तब
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