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________________ अष्टमस्तम्भः। बौद्ध, सांख्य, वेदांत, न्याय, वैशेषिक, पातंजल, मीमांसादि सर्वशास्त्रोंके कहे तत्वोंको प्रथम श्रवण पठन मनन निदिध्यासनादि करके जिस शास्त्रका कथन युक्तिप्रमाणसें बाधित होवे, तिसका त्याग करना चाहिये; और जो युक्तिप्रमाणसें बाधित न होवे, तिसकों खीकार करना चाहिये; परंतु मतोंका खंडनमंडन देखके द्वेषबुद्धि कदापि किसी भी मतउपर न करनी चाहिये. क्योंकि, सर्वमतोंवाले अपने २ माने मतोंकों पूरा २ सच्चा मान रहे हैं. इन पूर्वोक्त मतोंमेंसे सांख्य, मीमांसक, जैन और बौद्ध ये जगत्का कर्ता ईश्वरकों नहीं मानते हैं, और वैदिक, नैयायिक, वैशेषिकादिमतोंके माननेवाले जगत्का कर्ता ईश्वरकों मानते हैं; वेदमतवाले अन्यमतोंवालोंसें विलक्षणही जगत् और जगत्कर्ताका स्वरूप मानते हैं, और यह भी कहते हैं कि, वेदसमान अन्य कोई भी पुस्तक प्रमाणिक नही है, इसवास्ते प्रथम हम वेदके कथनकोंही विचारते हैं कि, प्रमाणसिद्ध है वा नही? जेकर प्रमाणसिद्ध है, तब तो वाचकवर्गकों सत्य करके मानना चाहिये, और जेकर प्रमाणबाधित होवे तब तो, तिसका त्यागही करना चाहिये. वेदोंमें भी बडा, और प्रथम जो ऋग्वेद है, तिसके कथनकाही सत्य वा असत्यका विवेचन करते हैं. #. अ ८अ७। व १७।मं १०।अनु ११। सू १२९॥प्रलयदशामें जगउत्पत्तिका कारणभूत माया, सत्स्वरूपवाली भी नहीं थी, और असत्स्वरूपवाली भी नहीं थी, किंतु सत् असत् दोनों स्वरूपोंसें विलक्षण अनिर्वाच्यस्वरूपवाली थी. उत्तरपक्ष:--जहां असत्का निषेध करेंगे, तहां अवश्यमेव सत्का विधि मानना पडेगा; और जहां सत्का निषेध करेंगे, तहां अवश्यमेव असत् मानना पडेगा; और जहां असत् सत् दोनोंका युगपत् निषेध करेंगे, तहां सत् असत् दोनों युगपत् मानने पडेंगे; और जहां सत् असत् दोनों युगपत् निषेध करेंगे, तहां असत् सत् दोनों युगपत् मानने पडेंगे. असत् और सत् ये दोनों एक स्थानमें रह नही सक्ते हैं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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