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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. करणमें कैसे रह सक्ते है ? यह कहना तो ऐसा हुआ कि, जैसे कोइ उन्मत्त कहता है, मेरी माता तो है, परं वंध्या है. इस पूर्वोक्त कथनमें मनुजीने, तथा ऋग्वेदके कर्त्ताने, छिपकरके स्याद्वादका किंचित् शरण लिया मालुम होता है. क्योंकि, स्याद्वादविना कदापि भेदाभेद पक्ष सिद्ध नहीं होता है. स्याद्वाद तो परमेश्वरकी सर्वपदार्थोपर मोहर छाप लगी हुई है, जिसवस्तु उपर स्याद्वादरूप मोहर छाप नही, सो वस्तु खरशृंगवत् एकांत असत् है, 'स्याद्भेदः स्यादभेदः मलयुक्तसुवर्णवत्' जैसे सोना और मल अव्याकृत, अर्थात् विभागरहित एक पिंडीरूप है, परंतु सुवर्णकी विवक्षा करीए तब तो कथंचिद् भेद है, सर्वथा नही; जेकर सर्वथाही भेदविवक्षा करीए तब तो, सुवर्णकी पिंडीमें मल न होना चाहिये.और जेकर सुवर्ण और मलका एकांत अभेदही मानीए तब तो, सुवर्णकी पिंडीमें सर्वथा मल न होना चाहिये, किंतु एकांत सुवर्णही होगा. इसवास्ते कथंचित् भेदाभेद पक्ष बनता है, परंतु स्यात्पदके विना केवल भेदाभेद पक्ष नही सिद्ध होता है;
और जहां कथंचित् भेदाभेद पक्ष माना जावेगा, तहां अवश्यमेव दो वस्तुयों माननी पडेगी; क्षीरनीरवत् . इसबास्ते अव्याकृत ब्रह्म कथंचित् द्वैत, कथंचित् अद्वैत मानना पडेगा; इसवास्ते वेदांतियोंका एकांत अद्वैतपक्ष तीनकालमेंभी सिद्ध नही हो सकता है. और जडकार्यका उपादान कारणभी जड, और चैतन्यकार्यका उपादनकारण चैतन्यही सिद्ध होवेगा; इसवास्ते एक चैतन्य ब्रह्म, जडचैतन्यरूप जगत्का कदापि उपादानकारण सिद्ध नहीं हो सक्ता है; इसवास्ते श्रुतिस्मृत्यादिकोंमें जो लिखा है कि, मैं एकही जडचैतन्य अनेकरूप हो जाऊं, यह प्रमाणवाधित है. और ब्रह्मकों जो जगत् रचनेकी इच्छा हुई, यह भी कथन मिथ्या है, क्योंकि, शरीरकेविना मन नही, और मनविना इच्छा नहीं, यह प्रमाणसिद्ध है; ऊपरभी लिख आए है. . अंडा रचा, यह कथन, ऋग्वेदयजुर्वेदकी श्रुतिसें, और गोपथब्राह्मणादिसें विरुद्ध है; क्योंकि, ऋग्वेदमें अंडा नही कहा, यजुर्वेद और गोपथब्राह्मणमें ब्रह्माकी उत्पत्ति कमलसें कही है. तिस अंडे में परमात्मा
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