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________________ पश्चमस्तम्भः । १६१ 1 शून्य है, अचल पूर्वरूपापरित्यागी है और सनातन ( अनादि ) है . । सो आत्माही, अक्षर, भूतात्मा, संप्रदाय, प्राण, परब्रह्म, हंस और पुरुषादि कहनेमें आता है. । आत्मासें अन्य कोई देखनेवाला, सुननेवाला, मनन करनेवाला, कर्त्ता, भोक्ता और वक्ता, नहीं है; किंतु, आत्माही है. । आत्मा चैतन्यरूप है, सो चेतन आत्मा अध्यवसायकरके कर्मोसें बंधाता है, तब आत्माको संसार होता है, और कर्मबंध के अभावसें परंपद मोक्ष प्राप्त होता है । आत्मा आपही अपने दीनात्माका उद्धार करता है, और आपही अपनेको दुःखोंमें गेरता है, आत्माही आत्माका बंधु है, और आत्माही आत्माका रिपु (शत्रु) है. । संतुष्ट मित्र, और क्रोधायमान शत्रु, जो सुखदुःख पूर्वे मैंने नही करा है, सो सुख दुःख मेरेको नही करेंगे। क्यों कि, शुभाशुभकर्मोंको देहधारी आपही करते हैं, और आपही तिन कर्मोंको सुखदुःखरूपकरके भोगते हैं. । वनमें, संग्राममें, शत्रुजनोंके बीचमें, समुद्रमें, पर्वतके शिखरऊपर, सूतेको, प्रमत्तको, विषमआपदा में पडेको, इत्यादि अवस्थावाले आत्माकी पूर्वले करे हुए पुण्यही सर्वत्र रक्षा करते हैं. ॥ ११२|३|४|५|६|७|८|९|१०|११|१२|१३।१४॥ “दैववादिनश्चाहुः॥” Jain Education International स्वच्छन्दतो न हि धनं न गुणो न विद्या नाप्येव धर्मचरणं न सुखं न दुःखम् ॥ आरुह्य सारथिवशेन कृतान्तयानं दैवं यतो नयति तेन पथा व्रजामि ॥ १ ॥ यथायथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते ॥ तथातथा तत्प्रतिपादनोद्यता प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्त्तते ॥ २ ॥ विधिर्विधानं नियतिः स्वभावः कालोग्रहा ईश्वरकर्मदेवम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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