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सकता है. रत्नत्रयि संपादित हुआ और सर्वज्ञादि विभूति शीघ्र प्राप्त होती है. सर्वज्ञादि विभूतिकी प्राप्ति ज्ञानमार्गके उदयसे परिणाममें पास होती है. और ज्ञानमार्गका उदय अलौकिक भावनासे भीजे हुए जैनमार्गकी शैलिकी महत्वता जैनदर्शनशास्त्रके अभ्यासकी वृद्धी होनेसेही हो सकता है. उसका उमदा रस्ता यह है कि हिंदुस्थानमें मुंबई जैसे एक मध्यस्थानमें एक बडी जैन पाठशाला स्थापित होनी चाहिये कि जिसमें अग्रेजी-देशी सांसारिक केलवणीके साथ धार्मिक केलवणी बालपणसेंही दीजावे. वडे बडे शहरोंमें शाखा-पाठशालाए स्थापित करनी चाहिये. सद्बोध प्राप्त हुए विना कार्यकी सिद्धी नहीं होती है. ख्रिश्चनलोक कि जिस धर्मको वे ठीक समजते हैं, उसकी वृद्धि करनेके वास्ते करोडों रुपैयोंकी कान्तिका मोह उतारके व्यय करते हैं. धर्मके पुस्तकोंकी लाखो नकलों छपाके लागतसे भी कमदामसे बेचते. हैं. मुसलमान, याहुदी, पारसी, आदि प्रथम धर्मकी केलवणी अपने बच्चोंको देकर फिर उदर पोषणकी सांसारिक विद्या पढाते हैं. धर्माभ्यासके लिये इन लोकोंने जब सेंकडों शालाए बनाई है, तो सत्यके अपूर्व कीर्तिस्तंभकरके सुवर्णलताकी कान्तिरूप जैनदर्शनके अनुयायी उदरनिर्वाहकी व्यवहारग्रंथीमें लिपटके परमार्थ मार्गकी स्वप्नावस्थामें कालरात्री गुजार रहे हैं. धनसंपन्नवर्ग विषयावादमें मग्न है; मध्यमवर्ग व्यवहारपटुतामें लुब्ध है. अधमवर्ग उदरनिर्वाहकी चिंता है. पंडित भावनासें शास्त्राभ्यासका कोई भी सुशील अवलोकन करनेवालेको अपूर्व जैनदर्शनकी यह स्थिति देख करके दया धर्मके प्रतिपादक जैनदर्शनपर दया करनेकाही समय आया है. विवेकी धनसंपन्न जैनधर्मीयोंको चाहिये कि अब अपने हृदयचक्षुसे धर्मकी स्थितिको देखकर जैनतत्त्वशास्त्ररूपरत्नको पहेल पढाके उसको शुद्ध कांति प्रगट करनेको उद्युक्त होकर अपनी फरज यहि अपना कर्तव्य समजे, यही जीवनका तात्पर्य समजे, शिशुवयका बोध ज्ञानतंतुमें स्थायी रह सकता है, उसके संस्कार जीवनपर्यंत जींदगीको मधुरी निर्दोष करनेको सामर्थ्यवान् है. धर्मानुरागीको चाहीये कि ऐसी जैन पाठशाला स्थापन कराने में उद्यमवंत हो. ये अपूर्व ज्ञानामृतकी प्रसादीका लाभ अपने वालकोंको दें, इसमें अपना, अपने महान् धर्मका, अपने कुल, जाति औ.५सका उदय है. ऐसी एक पाठशाला स्थापन करनेको स्वर्गवासी बाबुसाहेब पन्नालालजीने अपने धनका सदुपयोग चार लाख रुपये ज्ञानमार्गमें देकर किया है. इस पाठशालाके लिये कई विद्वानोंकी सम्मति लेकर " बाबु पन्नालाल आत्म जैन पाठशालाकी योजना" ऐसे नामसे मेरी तरफसें एक योजना पत्र तयार किया है.
जैनधर्म अनादि होने की पुष्टीम यह सिद्ध है कि मूल आर्य वेदोंके छत्तीस उपनिषद् जो जैनशैली अनुसार जैनोंमें मौजूद है, जिसपरसे और दूसरे संजोगोंसे यह बात सबूत होती है कि आधुनिक वेद कोई नयेही वेद हैं. जैन इतिहास कहता है कि पहेले तीर्थकर श्रीऋषभनाथके पुत्र भरत चक्रवर्तीने अपने पीताके उपदेशसें गृहस्थ अर्थात् श्रावक धर्मके निरूपक चार वेद श्रावक ब्राह्मणों के पढनेके वास्ते रचे. ये वेदोंके नाम
१“आत्म" शब्दसे यह भावार्थ है कि स्वर्गवासी बाबुजीका यह निश्चय था कि महाराज श्री आत्माराम जीके नामसे एक पाठशाळा (जैन कॉलेज) स्थापन करके यह परम उपकारी सद्गुरुका नाम अमर रखना.
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