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________________ पञ्चमस्तम्भः । १४७ व्याख्या - सृष्टि के बाद करनेवाले सर्वलोकको ( संपूर्ण जगत्को ) कृत्रिम (रचाहुआ) मानते हैं, तिनमेंसें महेश्वरादिसें सृष्टिकीउत्पत्ति माननेवाले सृष्टिवादी जे हैं वे संपूर्ण लोकको आदि और अंतवाला मानते हैं ४२ मानीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसंभवं लोकम् ॥ द्रव्यादिषविकल्पं जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥ ४३ ॥ व्याख्या - मानी ईश्वर ( अहंकारी ईश्वर ) मैं ईश्वर हूं ऐसे ईश्वरसें लोक उत्पन्न हुआ है, ऐसे कितनेक मानते हैं, कितनेक सोम और अग्नि जगत् की उत्पत्ति मानते हैं, और कितनेक इस जगत्को द्रव्यादि षटूविकल्परूप मानते हैं, सोइ दिखाते हैं ॥ ४३ ॥ द्रव्यगुणकर्मसामान्ययुक्तविशेषं कणाशिनस्तत्त्वम् ॥ वैशेषिकमेतावत् जगदप्येतावदेतावत् ॥ ४४ ॥ व्याख्या - पृथिव्यादिनवप्रकारका द्रव्य, शब्दादि चौवीस गुण उतक्षेपादि पांच प्रकार कर्म, सामान्य द्विप्रकार, समवाय एक, और विशेष अनंत, यह षट्पदार्थ कणादमुनिका तत्त्व है, वैशेषिकमतभी इतनाही है, और जगत्भी इतनाही है ॥ ४४ ॥ इच्छन्ति काश्यपीयं केचित्सर्वं जगन्मनुष्याद्यम् ॥ दक्षप्रजापतीयं त्रैलोक्यं केचिदिच्छन्ति ॥ ४५ ॥ व्याख्या- कितनेक सर्व जगत्कों कश्यपसंबंधि मानते हैं, अर्थात् यह जगत् कश्यपने रचा है. ' तथाहि शतपथब्राह्मणे' सयत्कूम्र्म्मो नाम । एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत यत्सृजताकरोत् तद्यदकरोत्तस्मात्कर्म्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्यइति-शकां - ७ अ - ५ ब्रा - १ कं-५ [ भाषार्थः ] ( स यत्कुम्मों नाम) सो, जो कि, कर्म्मनामसें वेदों में प्रसिद्ध है, सो ( एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः ) एतत् अर्थात् कर्म्मरूपको धारण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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