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सिवाय वस्तुका बढना, कमी होना हो नहि सकता है. पृथ्वी आदिकी वृद्धि क्षयकी अनेक क्रियाओं अनेक नियमोसें निरंतर होती है. इस बातका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है.' यह बात देखते हैं तो घेतना सर्व द्रव्यमें व्याप्त हो रही है. यह स्वीकार करके भी चेतनको अंगसुख दुःखका वेदकपणा होना चाहिये यह समजना सामान्य बुद्धिसें मुश्किल है. स्थावर माणियोंमें चेतनको अंगसुखदुःखका जानपणा विद्यमान है. तीर्थंकरोंने स्थावर प्राणि. योंमें चार संज्ञाका आहार, शरीर, इंद्रिय, और श्वासोश्वास ये चार पर्यात्ति अस्तित्व फरमाया है. जिनके नाम आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह. बनस्पतिमें आहार संज्ञा है, जिसमें वृद्धि होती है, भय संज्ञा है, जिससे पाषाणादि द्रव्य बीचमें आनेसे दूसरे मार्गसें वृद्धि होती है, मैथुन संज्ञा होनेसें नर जातिको फरशी हुई धूली नारी जातिके वृक्षोंको स्पर्श करनेसें नारी जातिके वृक्ष नवपल्लव होकर फलते हैं. * : परिग्रह संज्ञासें नये २ परमाणुको ग्रहणकरके वृद्धि होती है. वैसेंही पृथ्वी आदिमें आहारादि संज्ञाका अस्तित्व पदार्थ विज्ञानादि शास्त्रोंके अवलोकनसें अनुभवगम्य हो सकता है. स्थावर द्रव्योमें संज्ञाका अस्तित्व स्वीकारनेसें चेतना स्वीकारी जाती है. और चेतना स्वीकारनेसे ज्ञानका अस्तित्व स्वीकारना पडता है. इस संकलनासें मालूम होता है कि ज्ञातापणाकी प्रेरणासेंही संज्ञाका उद्भव होता है. ज्ञातापणा सुखदुःखका वेदकस्वरूप होता है. स्थावरमें सुखदुःखका भोक्तापणा इस प्रकारसे संभवित होता है. जिसको सुखदुःखका ज्ञातापणा है, उसके ज्ञातापणेको क्लैश न हो, इस तरहसें वत्तीव रखना यही दयाका लक्षण है. ऐसी अनुपमेय वर्णन शैलिसेंयुक्त जैनदर्शनके सिद्धांत स्थावर जंगम प्राणियोंकी दया पालनेको अनेक रीतिसें स्पष्ट करके दिखाते हैं. दयामार्गके प्रतिपादक भित्र २ लेख वैष्णवी, रामानुनी, चैतन्यमार्गी, कबीरपंथी, निमानंदी, दादुपंथी, नानकपंथी आदिके ग्रंथों में मीलते हैं. वे लेख अनेक प्रमाणोसें पुष्ट किये हुवे हैं. तथापि स्वावर जीवात्माओंकी अनेक जिवायोनीके सूक्ष्म विवेचनयुक्त लेख सत्यनिष्ट अंतःकरणवाले बुद्धि कौशल्य शील पुरुषको जैन तत्त्व दर्शनिक शास्त्रोके सिवाय दृष्टिगोचर कदापि नहिं होगा. तीर्थंकरप्रणित जैन तत्त्वशास्त्रोंमें दया यही धर्मका रहस्य गिनकर ज्ञान, दर्शन, तप, संयम, वृत्तादिक निरूपण करके अरूपी आत्माका अवर्णनीय स्वरूप लक्षणोंद्वारा आत्मा अनात्मा (जीव अजीव) पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निजेरा बंध और मोक्ष. इन नव तत्त्वोंका अति स्फुट वर्णन दृष्टिगोचर कराक गुरुद्वारा, शास्त्राध्ययन करनेवालेको सम्यकबोधसें आत्मविचारश्रेणिकी अलौकिकतामें आनंदमय कर देता है. सम्यक्ज्ञान, सम्यदर्शन, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयि जैन
... * युरोपियन तत्वज्ञानियोंने ईसी माफक शोध की है कि नर वृक्षके फूलादिकी रज उडकर नारि जातिके पुष्पमें प्रवेश करे, जब इस भैथुनसें नारि वृक्ष फलता है. बंध्या प्राय: दाडिमादि वृक्षके फलानेको इस इलाजको काममें लगाते है, यह शोध पांच पचास वर्षकी बताते हैं, परंतु जैनसिद्धांतमें अनादि कालसें यह बात मान्य है. सर्वज्ञप्रणित धर्म किस बातकी न्यूनता होवे ! देखो कि मख्खनमें बहुत बारिक जीव है ऐया एक युरोपियन विद्वानने थोडा समय : हुवा शोध करके निकाला है. और ईस शोधके लिये उसका दुनीयाके विद्वानवर्ग में बहुमान हो रहा है. परंतु जैनीका एक लडका भी जानता और मानता है के मख्खनमें एक अंतर्मुहूर्तमें (४८ मीनीट ) असंख्य जीव पैदा होते हैं. वासी रोटीमें, पाणीके एक बिंदूमें असंख्य जीव आजके विद्वान सुक्ष्मदर्शकयंत्र (खर्दबीन) द्वारा देखते हैं. परंतु यह सिद्धांत
जैनी अनादि कालसें मानते आये है. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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