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चतुर्थस्तम्भः।
१२५ व्याख्या-यह मोदक मेरी माताका बनाया हुआ है, ऐसा जानके जे बालक तिसके अच्छेपणेका आग्रह करते हैं, और विना विचारे तिसकों ग्रहण करते हैं, वे पीछे परिताप (पश्चात्ताप) को प्राप्त होते हैं. जैसे विना परीक्षाके करे सुवर्णका ग्रहण करनेवाला पुरुष, पीछे पश्चात्ताप करता है, यथा धिग् है मेरेकों जो मैने विना परीक्षाकेकरे सुवर्णके बदले पीतल ग्रहण किया. ऐसेही जे पुरुष अपने २ कुलकी रूढिसें माने अधर्मकों धर्म मानके कूद रहे हैं, और सत्य धर्मका निर्णय नहीं करते हैं, वे पक्षपाती पुरुष पीछे पश्चात्ताप करेंगे, लोहवणिक्वत्. ॥ १९ ॥ अथ तत्वज्ञानप्राप्तिका उपाय दिखाते हैं.
श्रोतव्ये च कृतौ कर्णों वाग् बुद्धिश्च विचारणे॥
यःश्रुतं न विचारेत स कार्य विन्दते कथम् ॥ २० ॥ व्याख्या-सुननेयोग्य वस्तुमें तो दोनो कान करेहैं, वचन और बुद्धि ये दोनों तत्त्वके विचारणेमें प्रवृत्तमान करेहैं, सो पुरुष तत्त्वज्ञानकों प्राप्त होता है, परंतु जो सुणके विचारता नहीं है, सो पुरुष कार्यकों अर्थात् तत्त्वकों कैसें जाणे ? ॥ २० ॥ नेत्रैर्निरीक्ष्य विषकण्टकसर्पकीटान्
सम्यग् यथा व्रजति तान् परिहत्य सर्वान् ॥ कुज्ञानकुश्रुतिकुदृष्टिकुमार्गदोषान्
सम्यग् विचारयथ कोत्र परापवादः ॥२१॥ व्याख्या-जैसे विषकंटक सर्प कीडे इन सर्वको मार्गमें चलता हुआ, नेत्रोंसें देखकरके सम्यक् प्रकारे सर्व ओरसें परिवर्जन करता है, इसमें जो कहे कि, यह पुरुष रस्तेमें विषकंटक सर्प कीडे इनकों वर्जके चलता है, इसवास्ते यह पुरुष विषकंटकादिका निंदक है, क्या वो उसके कहनेसें पूर्वोक्त वस्तुयोंका अपमान करनेवाला सिद्ध होसक्ता है ? कदापि नहीं होसक्ता है. ऐसेही जो पुरुष कुज्ञान, कुश्रुति, कुदृष्टि, कुमार्ग-कुज्ञानअज्ञान, पदार्थके खरूपकों विपर्यय कथन करना. जैसें आत्मा चारभूतोंसें
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