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________________ तृतीयस्तम्भः। १०३ है, इससे प्रगट मांस खानेका उपदेश करते हैं, और राजपुताना योधपुरके महाराजा सर प्रतापसिंहजीने एक नवीन पुस्तक बनवा कर, तिसमें अथववेदके मंत्र लिखके, तिनके ऊपर एक पंडितने नवीन भाष्य रचा है, तिसमें बहुत प्रकारसे मांसका खाना ईश्वरकी आज्ञासे सिद्ध करा है. तथा इस विषयक मनुस्मृति और दयानंदस्वामी आदिका भी प्रमाण लिखा है. अब यह दोनों दल परस्पर विवाद कर रहे हैं. ___ और गौतमने सिर्फ वेद और वेदांतके खंडनवास्ते ही न्यायसूत्र रचे हैं, वेद और वेदांतसें विपर्ययही प्रक्रिया रची है, कणादने षट् पदार्थ ही रचे हैं इत्यादि अनेक विप्लव अन्य मतके शास्त्रोंमें तिनके शिष्योंने करे हैं अर्थात् पूर्वजोंने जो कुछ कथन करा था, सो, तिनके शिष्यप्रशिप्यादिकोंने अन्यथा आकारवाला कर दिया है!!! हे जिनेंद्र! ( तव) तेरे (शासने ) शासनमें ( अयं) यह पूर्वोक्त (विप्लवः) विप्लव (न) नहीं (अभूत् ) हुआ है अर्थात् शिष्य प्रशिष्योंका करा ऐसा विप्लव तेरे कथनमें नही हुआ हैं. क्योंकि, सात निव, और अष्टमबोटिक महा निह्नव, इनोंने किंचिन्मात्र विप्लव करना चाहा था, तोभी, तिनका करा किंचिद् विप्लव न हुआ, शासनसें बाह्य तिनकों श्री संघने तत्काल कर दीए, इसवास्ते तेरे शासनमें पूर्वोक्त विप्लव नही हुआ है. इसवास्ते (अहो ) बडाही आश्चर्य है कि, (तव) तेरे (शासनश्रीः) शासनकी लक्ष्मी (अधृष्या) अधृष्य है, अर्थात् कोईभी तिसकी धर्षणा नही कर सकता है ॥ १६ ॥ ___ अथ परवादीयोंने जे जे अपने अपने मतके अधिष्ठाता स्वामीभूत देवते कथन करे है, तिनमें जे जे अघटित परस्पर विरुद्ध बातें हैं, वे, स्तुतिकार दिखाते हैं. देहाद्ययोगेन सदा शिवत्वं शरीरयोगादुपदेशकर्म ॥ परस्परस्पर्धि कथं घटेत परोपक्लुप्तेष्वधिदैवतेषु ॥ १७ ॥ व्याख्या-(देहाद्ययोगेन ) देहादिके अयोगसें, अर्थात् देह, आदि शब्दसें राग, द्वेष, मोहादि सर्व कर्म जन्य उपाधिके अभावसे (सदा) नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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