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________________ तृतीयस्तम्भः। १०१ भरूप-विप्रतारणरूप उपदेश रचे गए हैं, वे उपदेश, तेरे परमाप्तके रचे पथोपदेशमें कोप वा आक्रोश, वा तिनके खंडनमें उत्साह, वा वेग, जलदी नही कर सक्ते हैं, असमर्थ होनेसें. ॥ १५॥ अथ स्तुतिकार परवादियोंके मतमें जे उपद्रव हुए हैं, वे उपद्रव भगवानूके शासनमें नहीं हुए हैं, ऐसा स्वरूप दिखाते हैं. यदार्जवादुक्तमयुक्तमन्यैस्तदन्यथाकारमकारि शिष्यैः ॥ न विप्लवोयं तव शासनेभूदहो अधृष्या तव शासनश्रीः॥१६॥ व्याख्या-(अन्यैः) परमतके आदि पुरुषोंने (आर्जवात् ) आर्जवसें अर्थात् भोले भाले सादे अपने मनमाने विचारसे ( यत् ) जो कुछ वेदादि शास्त्रोंमें (अयुक्तम् ) अयोग्य (उक्तम् ) कथन करा है (तत्) सोही कथन (शिष्यैः) तिनके शिष्योंने (अन्यथाकारम् )अन्यरूपही (अकार) कर दीया है; क्योंकि, प्रथम जे वेद थे वे अनीश्वरवादी मीमांसकोंके मतानुयायी थे, और कर्मकांड यजनयाजनादि और अनेक देवतायोंकी उपासना करके स्वर्गप्राप्ति मानते थे, और काम्य कर्मोंके वास्ते अनेक तरेंके यज्ञादि करते थे, मोक्ष होना नही मानते थे, सर्वज्ञकोंभी नही मानते थे, वेदोंकों अपौरुषेय किसीके रचे हुए नहीं हैं, किंतु अनादि हैं, ऐसें मानते थे; तिस अपने मतकी पुष्टि वास्ते पूर्वमीमांसा नामक ऐसें जैमनि मुनिने रचे है, ऐसा इसमतका स्वरूप था.प्रथम तो वेदोंमेंही गडबड कर दीनी, कितनेही प्राचीन मंत्र बीचसे निकाल दिये, ऋग्वेदमें पुरुषसूक्त, और जे जे ईश्वर विषयक ऋचा हैं, वे प्रक्षेप कर दीनी है; और यजुर्वेदादिकोंमें 'सहस्रशीर्षः सहस्रपात्' तथा 'हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे इत्यादि तथा 'इशावास्य' इत्यादि; तथा चारवेद ईश्वरसे उत्पन्न हुए हैं, तथा चार वेद हिरण्यगर्भके उत्स्वास रूप है इत्यादि श्रुतियां ईश्वर विषयक वेदोंमें प्रक्षेप करके वेदोंकों ईश्वरके रचे हुए सिद्ध करे; पीछे तिन वेदोंके मूल पाठमें भेदवालीयां हजारां शाखा और शाखाके सूत्र ग्चे गए. तदनंतर यास्काचार्यादिकोंने निघंट निरुक्तादि रचके वेदोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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