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________________ ५७ तृतीयस्तम्भः । व्याख्या-हे भगवन् ! (क) कहां तो ( महार्थाः ) अति महा अर्थ संयुक्त (सिद्धसेनस्तुतयः) सिद्धसेनदिवाकरकी करी हुई स्तुतियां, और (क) कहां (एषा) यह ( अशिक्षितालापकला ) नही सीखा है अब तक पूरा पूरा बोलनाभी जिसने, तिसके कहनेकी स्तुतिरूप कला; अर्थात् कहा श्रीसिद्धसेनदिवाकरराचित महा अर्थवालिया बत्तीस बत्ती. सियां, और कहां मेरे अशिक्षित आलापकी यह स्तुतिरूप कला; ( तथापि) तोभी, (यूथाधिपतेः ) हाथियोंके यूथाधिपके ( पथस्थः ) पथ मार्गमें रहा हुआ ( स्खलद्गतिः ) स्खलित गतिभी, अर्थात् पथसें इधर उधर गति स्खलायमान् भी ( तस्य ) तिस यूथाधिपका ( शिशुः) बालक कलभ ( न शोच्यः) शोचनीय नही है. ऐसेही श्री सिद्धसेनदिवाकर गच्छाधिप है, और मैं तिनका (बालक ) बच्चा हूं. जिस रस्तपर वे चले हैं, मैंभी तिसही रस्ते में रहा हुआ, अर्थात् तिनकी तरहही स्तुति करता हुआ, जेकर स्खलायमानभी होजावू, तोभी शोचनीय नही हूं. अथाग्रे श्रीहेमचंद्रसूरि अयोग व्यवच्छेदरूप भगवंतकी स्तुति रचते हैं. जिनेंद्र यानेव विवाधसे स्म दुरंतदोषान् विविधैरुपायैः ॥ त एव चित्रं वदसूययेव कृताः कृतार्थाः परतीर्थनाथैः॥३॥ व्याख्या हे जिनेंद्र ! ( यानेव) जिनही (दुरंतदोषान् ) दुरंतदूषणाकों (विविधैः ) विविध प्रकारके ( उपायैः) उपायोंकरके (विबाधसे ) तुम बाधित करते हुए हैं, अर्थात् जिन दुरंतदूषण राग, द्वेष, मोहादिकोंको नाना प्रकारके संयम, तप, ज्ञान, ध्यान, साम्यसमाधि, योग, लीनतादि उपायोंकरके दुर करे है; (चित्रम् ) मुझकों बडाही आश्चर्य है कि, ( त एव ) वेही दुरंतदूषण (परतीर्थनाथैः ) परतीर्थनाथोंने ( त्वदसूययेव) तेरी असूया करकेही ( कृतार्थाः ) कृतार्थ (कृताः) करे हैं, अर्थात् अच्छे जानके स्वीकार करे हैं; सोही दिखाते हैं. हे भगवन् ! प्रथम रागकों तैने दूर करा; तिस रागकोही परतीर्थनाथोंने स्वीकार करा है. क्योंकि, रागका प्रायः मूल कारण स्त्री है, सो तो, तीनोंही देवने अंगीकार करी है. ब्रह्माजीने सावित्री, शंकरने पार्वती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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