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तत्वनिर्णयप्रासादच्छेद नाम कियां दो बत्तीसियां पंडितजनोंके मनके तत्वबोध हेतुभूत रचीयां है. तिनमेंसें, प्रथम द्वात्रिंशिका सुगमार्थरूप है, इसवास्ते इसकी व्याख्या नहीं करते हैं, ऐसें श्रीमल्लिरवेणमूरि कहते हैं. परंतु इस कालके हमारे सरीखे मंदबुद्धियोंकों तो, प्रथम द्वात्रिंशिकाका अर्थ जानना बहुतही कठिन हो रहा है; तथापि, शिष्यजनोंकी प्रार्थनासें, और श्रीहेमचंद्रसूरिजीकी भक्तिके मिससे किंचिन्मात्र अर्थ लिखते हैं.
अगम्यमध्यात्मविदामवाच्यं वचस्विनामक्षवतां परोक्षम् श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपमहं स्तुतेर्गोचरमानयामि ॥ १॥ व्याख्याः-(अहं ) में हेमचंद्रसूरि (श्रीवर्द्धमानाभिधम् ) श्रीवर्द्धमान नाम भगवंतकों (स्तुतेः) स्तुतिका (गोचरम् ) विषय (आनयामि) करता हूं. कैसा है श्रीवर्द्धमान भगवंत (अध्यात्मविदाम् ) अध्यात्मवेत्तायोंके (अगम्यम्) अगम्य है, अर्थात् अध्यात्मज्ञानीभी जिसका संपूर्ण स्वरूप नही जान सक्ते हैं. जे आत्माका, मनका और देहका, यथार्थ स्वरूप जानते हैं, तिनकों अध्यात्मवित् कहते हैं. तिनोंकेभी ज्ञानकरके श्रीवर्द्धमान भगवंतका स्वरूप अगम्य है. तथा (वचस्विनाम् ) वचस्वी पंडितकों कहते हैं, मनःपर्यायज्ञानी, अवधिज्ञानी, पूर्वधर, गणधरादि सर्व शास्त्रोंका वेत्ता. ऐसें सद्बुद्धिमान् सर्व पापोंसें दूर वर्त्तनेवाले ऐसें पंडितोंके वचनों करके श्रीवर्द्धमान भगवंतका स्वरूप (अवाच्यम् ) अवाच्य है, अर्थात् ऐसें पंडितभी जिनका संपूर्ण स्वरूप नहीं कह सक्ते हैं. क्योंकि, श्रीवर्द्धमान भगवंत अनंतखरूप गुणवान् है; और छअस्थके तो ज्ञानमेंही वे सर्वगुण नही आ सक्ते हैं तो, तिन सर्वका स्वरूप कथन करना तो दूरही रहा. तथा (अक्षवताम् ) नेत्रोंवालोंके (परोक्षम् ) परोक्ष है; यद्यपि संप्रति कालके नेत्रोंवालोंके तो भगवंतका स्वरूप देखना परोक्षही है, परंतु भगवंतके जीवनमोक्षके समयमें भी नेत्रोंवालोंकेभी श्रीभगवंतका स्वरूप परोक्षही था. क्योंकि, समवसरणमेंभी बिराजमान भगवंतका अनंत गुणात्मक स्वरूप, नेत्रोंवाले नही देख सक्ते थे. तथा कैसे है श्रीवर्द्धमानाभिध भगवंत (आ. स्मरूपम् ) आत्मरूप है। आत्मा शब्दका अर्थ ऐसा है कि, अतति
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