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द्वितीयस्तम्भः ।
७५ देव, वासुदेव, महामंडलिक, मंडलिकादिकोंको राज्यादि पदवीका वर देवे; तथा सुंदर देवांगनासदृश स्त्रीका संयोग, पुत्रपरिवारादिकोंका संयोग जो करे, ऐसा रागी, द्वेषी, देव मोक्षके तांइ कभी नहीं हो सक्ता है. सो तो भूत प्रेत पिशाचादिकोंकी तरह क्रीडाप्रिय देवता मात्र है. ऐसा देव अपने सेवकोंको मोक्ष कैसे दे सक्ता है ? आपही यदि वो रागी द्वेषी कर्मपरतंत्र है तो, सेवकोंका क्या कार्य सार सक्ता है ?
तथा जो नाद, नाटक, हास्य, संगीत, इनके रसमें मग्न है, वादित्र, (बाजा) बजाता है, नृत्य करता है, औरांको नचाता है, हसता और कूदता है, विषयी रागोंको गाता है, संगीत बोलता है, स्त्रीके विरहसे विलाप करता है, इत्यादिक अनेक प्रकारकी मोहकर्मके वश संसारकी चेष्टा करता है, और स्वभाव जिसका अस्थिर हो रहा है, सोभी परमेश्वर नहीं कहा जाता है; यदि परमेश्वर आपही ऐसा है तो फेर वो परमेश्वर सेवकोंको शांतिपद कैसे प्राप्त करा सक्ता है ? यदि किसी पुरुषने एरंडवृक्षको कल्पवृक्ष मानलिया तो, क्या वो कल्पवृक्ष हो सक्ता है ? वा कल्पवृक्षका सारा काम दे सक्ता है ? अब भगवान्में अष्टगुण होते हैं सो लिखते हैं.
॥ मूलम् ॥ आर्यावृत्तम् ॥ क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाकाशसोमसूर्यास्याः ॥
इत्येतेष्टा भगवति वीतरागे गुणा मताः॥ ३४॥ भाषार्थ-क्षिति १ जल २ पवन ३ अग्नि ४ यजमान ५ आकाश ६ सोम ७ और सूर्य ८ ऐसे आठ गुण भगवान् वीतरागमें माने है. ॥३४||
क्षितिरित्युच्यते क्षांतिर्जलं या च प्रसन्नता ॥ निःसंगता भवेद्वायुर्हताशो योग उच्यते ॥ ३५॥ यजमानो भवेदात्मा तपोदानदयादिभिः ॥
अलेपकत्वादाकाशः संकाशः सोभिधीयते ॥ ३६ ॥ व्याख्या-क्षितिशब्दकरके क्षमा कहिए है, जल कहनेसे निर्मलता, और पवन कहनेसे निःसंगता-प्रतिबंधरहित, आग्नि कहनेसे योग, अर्थात्
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