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________________ ૭૨ तत्वनिर्णयप्रासादभाषार्थः-प्रथम महादेवजीके शापसे सब ऋषि अपने २ शरीरको आपही त्याग कर स्वर्गलोकमें जाते भये, वहां ब्रह्माजीके वीर्यसे फिर ऋषि उत्पन्न हुए हैं. तब देवताओंकी माता, और देवताओंकी स्त्रियां, ब्रह्माजीके वीर्यको स्खलित हुआ जानकर ब्रह्माजीके समीपसे उस वीर्यको अग्निमें हवन करवा देती भई. जब ब्रह्माजीने वीर्यका हवन किया, तब अग्निमेंसे महातेजवाले भृगुऋषि उत्पन्न हुए. मत्स्यपुराण अध्याय ||१९४॥ तथा ब्रह्मवैवर्तपुराणेऽपि चतुर्थाऽध्याये ॥ रतिं दृष्वा ब्रह्मणश्च रेतःपातो बभूव ह ॥ तत्र तस्थौ महायोगी वस्त्रेणाच्छाद्य लज्जया ॥१३॥ वस्त्रं दग्ध्वा समुत्तस्थौ ज्वलदग्निः सुरेश्वरः ।। कोटितालप्रमाणश्च सशिखश्च समुज्ज्वलन् ॥ १४॥ कृष्णस्य कामबाणेन रेतःपातो बभूव ह ॥ जले तद्रेचनं चक्रे लजया सुरसंसदि ॥ २३ ॥ सहस्रवत्सरान्ते तड्डिम्भरूपं बभूव ह ॥ ततो महान् विराट् जज्ञे विश्वौधाधार एव सः ॥२४॥ भावार्थः-रतिको देखकर ब्रह्माजीका वीर्यपात होता भया, तब वो महायोगी ब्रह्मा लज्जाकरके वस्त्रकेसाथ आच्छादन करके खडा होता भया, तब वो वीर्य वस्त्रको जालकर जाज्वल्यमान, कोटिताल प्रमाण, शिखावाला, देदीप्यमान, अग्निदेवता उत्पन्न होता भया. - कामके बाणोंकरके देवसभामें कृष्णजीका वीर्यपाल होता भया, तव लज्जाकरके कृष्णजी उस वीर्यको जलमें निकालते भये, वहां वो वीर्य हजार वर्ष व्यतीत हुए तब बालकरूप होता भया, तिस्से जगत् समूहको आधारभूत महान् विराट् उत्पन्न होता भया. ब्रह्मवैवर्त पुराण अध्याय ॥ ४॥ इत्यादि प्रायः सर्व पुराणादिके लेखोंसे, ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, जो कि लोकोंने कल्पन किये हैं उन्होंमें ज्ञानदर्शन चारित्र नहीं सिद्ध होते हैं. किंतु, काम, क्रोध, ईर्षा, रागादि दोष सिद्ध होते हैं. और ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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