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________________ (७९) देखके, सब सेवकोंके मुखका तेज, उडगया. किसीका जोर नहीं चला. कई सेवक जन, स्नेह विव्हल होके,कहने लगे, “महाराज ! आपने इतनी शीघ्रता क्यों करी' ? कोई कहता है, “ रे ! दुष्ट ! काल ! ऐसे उपकारी पुरुषका नाश करते हुऐ, तेरा नाश क्यों नहीं हुआ?” कोई कहता है, “महाराज साहिबने,अपना वचन सत्य करलिया. क्योंकि, जब कभी किसी जगेपर, गुजरांवालेके श्रावक विनती करते थे तो, उनको यही जवाब देते थे कि, 'भाई क्यों चिंता करते हो ? अंतमें हमने बाबाजीके क्षेत्र गुजरांवाले में बैठना है'. "" यथा-हे जी तुम सुनीयोजी आतम राम, सेवक सारलीजोजी॥अंचली॥ आतमराम आनंदके दाता, तुम बिन कौन भवोदधि त्राता॥ हुं अनाथ शराणि तुम आयो, अब मोहे हाथ दीजोजी॥हे ॥१॥ तुम बिन साधु सभा नवि सोहे, रयणीकर विन रयणी खोहे॥ जैसे तरणि विना दिन दिपे, निश्चय धार लीजोजी॥हे ॥२॥ दिन दिन कहते ज्ञान पढाऊं, चूप रहे तुज लड्ड देऊ॥ जैसे माय बालक पतयावे, तिम तुमे काहे कीजोजी॥हे. ॥३॥ दिन अनाथ हुं चेरो तेरो, ध्यान धरूं हुँ निश दिन तेरो॥ अबतो काज करो गुरु मेरो, मोहे दीदार दीजोजी॥ हे०॥४॥ करो सहाज भवोदधि तारो, सेवक जनको पार उतारो॥ बारबार विनती यह मोरी, वल्लभ तार दीजोजी ।। हे०॥५॥ इत्यादि अनेक संकल्प विकल्प करते हुए, आधि रात्रि आधे जुग समान होगई. प्रातःकाल होनेसे, शहेरमें हाहाकार हो रहा. हिंदुसें लेके मुसलमान पर्यंत कोईकही निर्भाग्य शहर में रहगया होगा कि, जिसने उस अंत अवस्थाका दर्शन, नहीं पाया होगा! जो देखता रहा, मुखमैं यही शब्द निकालता रहा कि, “इन महात्माने तो समाधि धारण करी है, इनको काल करगये, कौन कहता है ?” यह वखतही ऐसा था; ऐसा तेज शरीर ऊपर छायाथा, देखनेवालेको एक दफा तो भ्रमही पडजाता था. स्कूलके मास्तर छुटी होने के सबबसे पिछली मुलाकातसे मिलनेको, और बातचित करनेको आते थे, रस्तेमें सुनके हैरान होकर कहने लगे कि, "क्या किसो दुश्मनने यह बात उडाई है ? क्योंकि, कल शामके वखत, हम महात्माके दर्शन करके, और मतमतांतरों संबंधी वातचित करके, आज आनेका करार करगये थे. रात रातमें क्या पत्थर पड़गया ?7 आनके देखे तो सत्यही था. दर्शन करके कहने लगे, " महात्माजी आप हमसे दगा करगये ! हमतो आपसे, बहुत कुच्छ पूछके धर्म संबंधी निर्णय करना चाहते थे.आपने यह क्या काम किया ? क्या हमारेही मंद भाग्यने जोर दिया, जो आप हमको भूला गये ?" वगैरह जितने मुख, उतनीही बातें होती रही. परंतु सब,उजाडमें रुदन करने तुल्य था. क्योंकि, कितनाही विरलाप करें, कुच्छ भी बनता नहीं है. काल महा बली है. बडे २ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, किसीको भी कालने छोडे नहीं है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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