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________________ उसके साथ इस पाठ को मिलाने से मालूम हो जायेगा कि आनंद के पाठ में अन्य दर्शनी को अशन, पान, खादम, स्वादम देना नहीं, वारंवार देना नहीं, बिना बुलाये बुलाना नहीं, वारंवार बुलाना नहीं, यह पाठ है; और इस में वह पाठ नहीं है क्योंकि अंबड परिव्राजक था, और अन्य तीर्थी अंबड को गुरु कर के मानते थे, इस वास्ते उस से अन्यदर्शनी को बुलाने वगैरह का त्याग नहीं हो सके, तथा आनंद के पाठ में श्रमण निग्रंथ को अशनादिक देने का पाठ है, सो इस पाठ में बिलकुल नहीं है, क्योंकि अंबड परिव्राजक था । सो परघर में भिक्षावृत्ति से जीमता था, तो अशन, पान, खादम, स्वादम वगैरह श्रमण निग्रंथ को कहां से देवे ? तथा आनंद के पाठ में किस को वंदना नमस्कार करना सो पाठ बिलकुल नहीं है, और इस पाठ में अरिहंत, और अरिहंत की प्रतिमा को वंदना नमस्कार करने का पाठ है। इतना बड़ा फेर है तो जेठमल दोनों पाठों को एक सरीखा ठहराता है सो मिथ्यात्व का उदय है, तथा चैत्य शब्द का अर्थ अकल के दुश्मन जेठमल ने साधु किया है, सो बिलकुल असत्य है, यह बात दृष्टांत पूर्वक आनंद के पाठ में हमने सिद्ध कर दी है। फिर जेठमल लिखता है कि "चैत्य का अर्थ प्रतिमा मानोगे तो गुरु को वंदना का पाठ कहां है सो दिखाओ" उत्तर - अन्य तीर्थी के गुरु का जब त्याग किया तब जैनमत के साधु वांदने योग्य रहे, यह अर्थापत्ति से ही सिद्ध होता है। जैसे किसी श्रावक ने रात्रीभोजन का त्याग किया तो उसको दिन में भोजन करने का खुला रहा कि नहीं? किसी योगी ने वस्ती में रहने का त्याग किया तो उसको वन में रहने का खुला रहा कि नहीं ? किसी सम्यग्दृष्टि पुरुष ने जिनाज्ञा के उत्थापक जानके ढूंढकों का त्याग किया तो उसको जिनाज्ञा में वर्तने वाले सुसाधु वंदना करने योग्य रहे कि नहीं ? जरूर ही रहे । ऐसे ही अन्य दर्शनी के गुरु का त्याग किया तब जैनदर्शन के गुरु तो वंदने योग्य ही रहे । इस वास्ते ऐसी कुतर्क करना सो निष्फल ही है । फिर जेठमल ने लिखा है कि "अबंड साधु को वांदता था "सो असत्य है, यद्यपि अंबड शुद्ध श्रद्धावान् श्रावक होने से जैनमत के साधुको वांदने योग्य श्रद्धता था । तथापि आप संन्यासी तापसों का वेषधारी परिव्राजकाचार्य था, और अन्यमती उसको गुरुबुद्धि से पूजते थे । इस वास्ते क्षमाश्रमणपूर्वक साधु को वंदना नहीं करता था । और इसी वास्ते सूत्र में `णणित्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाणि वा' यह पाठ दोबारा लिखा है, और आनंद गृहस्थी था । उस को पूर्वोक्त तीनों वस्तुओं के प्रतिपक्षी को वंदना करनी उचित थी। इस वास्ते दोबारा पाठ सूत्र में नहीं लिखा है। जेठमल ने लिखा है कि "अंबड साधु को अशनादिक देता था" सो भी असत्य है, क्योंकि यह बात उस के पाठ में लिखी नहीं है। तथा वह आप ही पर घर में जीमता था तो साधु को अशनादि कहां से देवे ? जैसे ढूंढक लोग आप ही जिनाज्ञा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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