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श्रीप्रश्न व्याकरणसूत्र में तीसरे महाव्रत के आराधने निमित्त आचार्य, उपाध्याय, प्रमुख की वस्त्र, पात्र, आहारादिक से वैयावृत्य करने का कहा है । सो जैसे सर्व की एक सरिखी रीति से नहीं परंतु जैसे जिसकी उचित हो और जैसा संभव हो वैसे उसकी वैयावच्च समझने की है। वैसे इस पाठ में भी बुलाऊं नहीं, अन्नादिक देऊ नहीं, यह पाठ अन्य तीर्थी के गुरु के ही वास्ते है । यदि तीनों पाठ की अपेक्षा मानोगे तो श्रीमहावीरस्वामी के समय में अन्य तीर्थी के देव हरि, हर, ब्रह्मा वगैरह कोई साक्षात् नहीं थे। उनकी मूर्तियां ही थी; तो तुम्हारे करे अर्थानुसार आनंद श्रावक का कहना कैसे मिलेगा ? सो विचार लेना ! कदापि तुम कहोगे कि कुछ देवियां अन्नादिक लेती हैं। उनकी अपेक्षा यह पाठ है तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि देवी की भी स्थापना अर्थात् मूर्ति के पास ही अन्नादिक चढाते है। तो भी कदाचित् साक्षात् देवी देवता को
श्रावक श्राविका या जेठमल वगैरह ढूंढकों के मातापिताने अन्नादिक चढाया हो अथवा साक्षात् बुलाया हो तो बताओ ?
फिर जेठमल लिखता है कि " जिनप्रतिमा को अन्यमतिने अपने मंदिर में स्थापन कर लिया, तो उससे जिनप्रतिमा का क्या बिगड़ गया कि जिससे तुम उसको मानने योग्य नहीं कहते हो" उत्तर- यदि कोई ढूंढकनी या किसी ढूंढक की बेटी या कोई ढूंढक का साधु मदिरा पीने वाली, मांस खाने वाली, कुशील सेवने वाली वेश्या के घर में अथवा मांसादि बेचने वाले कसाई के घर में जार हे, तो तुम ढूंढक उसको जा के वंदना करो कि नहीं ? अथवा न्यात में लोगे कि नहीं ? यदि कहोगे कि न वंदना करेंगे और न न्यात में लेंगे तो ऐसे ही जिनप्रतिमा संबंधित समझ लेना ।
फिर जेठमल ने लिखा है कि " तुम्हारे साधु अन्य तीर्थी के मठ में उतरे हो तो तुम्हारे गुरु खरे या नहीं? " उत्तर - अरे बुद्धि के दुश्मनो ! ऐसे दृष्टांत लिख के बेचारे भोले भद्रिक जीवों को फंसाने का क्यों करते हो ? अन्य तीर्थी के आश्रम में उतरने से वह साधु अवंदनीय नहीं हो जाते हैं। क्योंकि वह स्वेच्छा से वहाँ उतरे हैं, और स्वेच्छा से ही वहाँ से विहार करते हैं। और उन साधुओं को अन्य दर्शनियों ने अपने गुरु रूप नहीं माना है। वैसे ही अन्य तीर्थयों की ग्रहण की जिनप्रतिमा में से जिनप्रतिमात्व चल जाता है, परंतु उस स्थान में वह वंदने पूजने योग्य नहीं है ऐसे समझना । __पुनः जेठमलने लिखा है कि "द्रव्य लिंगी पासत्था वेषधारी निन्हव प्रमुख को किस बोल में आनंदने वोसराया है ? "उत्तर -
साधु दीक्षा लेता है तब ‘करेमि भंते' कहता है, और पांच महाव्रत उचरता है उस को भी पासत्था, वेषधारी, निन्हव आदि को वंदना नमस्कार करने का त्याग होना चाहिये सो पांच महाव्रत लेने समय उसने उनका त्याग किस बोल में किया है सो बताओ ? परंतु अरे अक्कल के दुश्मनो ! सम्यग्दृष्टि श्रावकों को जिनाज्ञा से बाहिर ऐसे
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