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________________ ६२ सम्यक्त्वशल्योद्धार जेठमल लिखता है कि " जंघाचारण तथा विद्याचारणमुनियोंने श्रीरुचकद्वीप तथा मानुषोत्तर पर्वत पर सिद्धायतन वांदे कहते हो । परंतु दोनों ठिकाने तो सिद्धायतन | बिलकुल है नहीं तो कहाँ से वांदे ? उत्तर - श्रीमानुषोत्तर पर्वत पर चार सिद्धायतन हैं ऐसे श्रीद्वीपसागर पन्नत्तिसूत्र में कहा है तथा श्रीरत्नशेखरससूरि जो कि महा धुरंधर पंडित थे उन्होंने श्रीक्षेत्रसमास नामा ग्रंथ में ऐसे कहा है - यतः चउसुवि इसुयारेसु इक्कीकं नर, नगमि चत्तारि । कूडोवरि जिणभवणा कुलगिरि जिणभवण परिमाणा ।।२५७।। अर्थ-चार इषुकार में एक एक और मानुषोत्तर पर्वत में चार कूट पर चार | जिनभवन हैं सो कुलगिरि के जिन भवन प्रमाण है। तत्तो दुगुणपमाणा चउदाराथुत्त वण्णिय सुरुवा । नंदीसर बावण्णा चउ कुंडलि रूयगि चत्तारि ।।२५८॥ अर्थ - पूर्वोक्त जिनभवन से दुगुने प्रमाण के चार द्वार वाले और पूर्वाचार्यों ने वर्णन किया है स्वरूप जिन का ऐसे नंदीश्वर में (५२) कुंडलगिरि में चार (४) और रुचक पर्वत पर चार (४) एवं कुल साठ (६०) जिनभवन हैं । इत्यादि अनेक जैनशास्त्रों में कथन है, इस वास्ते मानुषोत्तर तथा रुचकद्वीप पर जिनभवन नहीं है ऐसा जेठमल का लेख बिलकुल असत्य है । पुनः जेठा लिखता है कि - " नंदीश्वरद्वीप में संभूतला ऊपर तो जिनभवन कहे नहीं हैं, और अंजनगिरि तो चउरासी (८४) हजार योजन ऊंचा है। उस पर चार सिद्धायतन हैं, वहां तो जंघाचारण विद्याचारण गये नहीं है।" इसका उत्तर-सिद्धायतन को वंदना करने वास्ते ही चारणमुनि वहां गये हैं। तो जिस कार्य के वास्ते वहां गये हैं, सो कार्य नहीं किया ऐसे कहा ही नहीं जाता है । क्योंकि श्रीभगवतीसूत्र में वहाँ के चैत्य वांदे ऐसे कहा है; तथा उनकी ऊर्ध्वगति पांडुकवन जो समभूतला से निनानवे (९९) हजार योजन ऊंचा है वहाँ तक जाने की है ऐसे भी उसीही सत्र में कहा है और यह अंजनगिरि तो चउरासी (८४) हजार योजन ऊंचा है, तो वहाँ गये हैं । उसमें कोई भी बाधक नहीं है और जेठमल ने नंदीश्वरद्वीप में चार सिद्धायतन लिखे है, परंतु अंजनगिरि चारके ऊपर चार हैं, और दधिमुख तथा रतिकर ऊपर मिला के ५२ हैं, और पूर्वोक्त पाठ में भी ५२ ही कहे हैं, इस वास्ते जेठमल का लिखना बिलकुल असत्य है । तथा जेठमल ने लिखा है - " प्रतिमा वांदी है वहाँ (चेइआई वंदित्तए) ऐसा पाठ है परंतु (नमस्सइ) ऐसा शब्द नहीं है । इस वास्ते प्रतिमा को प्रत्यक्ष देखी हो तो नमस्सई शब्द क्यों नहीं कहा ? " उसका उत्तर-वंदइ और नमस्सइ दोनों शब्दों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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