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सम्यक्त्वशल्योद्धार
२. आर्यक्षेत्र की मर्यादा विषय :
दूसरे प्रश्नोत्तर में जेठा रिख लिखता है कि "तारातंबोल में जैनी जैनमत के मंदिर मानते हैं" उस पर श्रीबृहत्कल्पसूत्र का पाठ लिख के आर्यक्षेत्र की मर्यादा बता के पूर्वोक्त कथन का खंडन किया है । परन्तु जेठे का यह पूर्वोक्त लिखना महा मिथ्या है, क्योंकि जैनशास्त्रों में तारातंबोल में जैनमत, वा जैनमन्दिर लिखे नहीं है, और हम इस तरह मानते भी नहीं है। यह तो जेठे के शिर में बिना ही प्रयोजन खुजली उत्पन्न हुई है। इस वास्ते यह प्रश्नोत्तर ही झूठा है । और श्रीबृहत्कल्पसूत्र का पाठ तथा अर्थ लिखा है सो भी झूठा है। क्योंकि प्रथम तो जो पाठ लिखा है सो खोटों से भरा हुआ है, और | उसका जो अर्थ लिखा है सो महा भ्रष्ट स्वकपोलकल्पित झठा लिखा है। उसने लिखा है कि " दक्षिण में कोसंबी नगरी तक सो तो दक्षिण दिशा में समुद्र नजदीक है।
आगे समुद्र जगती तक है तो समुद्र का क्या कारण रहा," अब देखिये जेठे की मूर्खता ! कि कोसंबी नगरी प्रयागके पास थी, जिस जगह अब कोसम ग्राम बसता है और आवश्यकसूत्र में लिखा है कि कोसंबी नगरी यमुना नदी के किनारे पर है । जेठा मूढमति लिखता है कि कोशांबी दक्षिण देश में समुद्र के किनारे पर है। यह कोसंबी कौन से ढूंढक ने वसाई है ? इस से तो अंग्रेज सरकार की ही समझ ठीक है कि जिन्हों ने भी कोसंबी प्रयाग के पास ही लिखी है। इस वास्ते जेठे का लिखना सर्व झूठ है, शेष अर्थ भी इसी तरह झूठे हे ।।
॥ इति ।। ३. प्रतिमा की स्थिति का अधिकार :
तीसरे प्रश्नोत्तर में जेठे ने "प्रतिमा असंख्याते काल तक नहीं रह सकती है ।" उस पर श्रीभगवतीसूत्र का पाठ लिखा है, परन्तु उस पाठ तथा अर्थ में बहुत भूल हैं ; तथा इस लेख में मालूम होता है कि जेठा महा अज्ञानी था, और दही के भुलावे कपास खाता था । क्योंकि हम तो प्रतिमा का असंख्याते काल तक रहना देव साहाय्य से मानते हैं । और श्रीभगवतीसूत्र में जो स्थिति लिखी है सो देव साहाय्य बिना स्वाभाविक स्थिति कही है। और देवशक्ति तो अगाध है।।
और ढूंढिये भी कहते हैं कि चक्रवर्ती छे खंड साध के अहंकार युक्त हो के ऋषभकूट पर्वत उपर नाम लिखने के वास्ते जाता है, वहां उस पर्वत पर बहुत से नाम दृष्टिगोचर होने में अपना अहंकार उतर जाता है। पीछे एक नाम मिटा के अपना नाम लिखता है । अब विचार करो, कि भरत चक्री हुआ तब अठारह कोटाकोटि सागरोंपम का तो भरतक्षेत्र में धर्म विरह था। तो इतने असंख्याते काल पहिले हए चक्रवर्तीयों के कृत्रिम नाम असंख्याते काल तक रहे तो देव सांनिध्य से श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा तथा श्री अष्टापद तीर्थ वगैरह रहे इसमें कुछ भी असंभव नहीं है, तथा श्री जंबूद्वीप पन्नत्तिसूत्र में प्रथम आरे भरतक्षेत्र का वर्णन नीचे मुताबिक है, -
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