SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ सम्यक्त्वशल्योद्धार जिस को शास्त्रकार ने अभक्ष्य कहा है और उस में बेइंद्रिय जीव की उत्पत्ति कही है । ढूंढकों को तो विदल का स्वाद अधिक आता है क्योंकि कितनेक तो फक्त मुफ्त की खिचडी और छास वगैरह खाने के लोभ से ही प्रायः ऋषजी बनते है, परंतु इस से अपने महाव्रतों का भंग होता है उस का विचार नहीं करते हैं। १०. पूर्वोक्त बोलों में दर्शाये मुताबिक ढूंढिये बेइंद्रिय जीवों का भक्षण करते हैं । देखिये इन के दयाधर्म की खूबी ! ११. सूत्रों में बाईस अभक्ष्य खाने वर्जे हैं तो भी ढूंढिये साधु तथा श्रावक प्रायः सर्व खाते हैं। श्रीअंगचूलियासूत्र के मूलपाठमें कहा है, यत - एवं खलु जंबु महाणुभावेहिं सूरिवरेहिं मिच्छत्तकुलाओ उस्सग्गोववाएणं पडिबोहिउण जिणमए ठाविया बत्तीस अणंतकायभक्खणाओ वारिया मह मज मंसाई बावीस अभक्खणाओ णिसेहिया ।। __ अर्थ - ऐसे निश्चय हे जंबु ! महानुभावप्रधानाचार्यो ने मिथ्यात्वियों के कुल से उत्सर्गापवाद कर के प्रतिबोध के जिनमतमें स्थापन करे । बत्तीस अनंतकाय खाने से हटाये, और शहद, शराब, मांस वगैरह बाईस अभक्ष्य खाने का निषेध किया ।। शास्त्रकारों ने बाईस अभक्ष्य में एकेंद्रिय, बेइद्रिय, तेइंद्रिय और निगोदिये जीवों की उत्पत्ति कही है तो भी ढंढिये इन को भक्षण करते हैं। १२. ढूंढिये अपने शरीर से अथवा वस्त्रमें से निकली जुओं को अपने पहने हुए वस्त्रमें ही रखते हैं जिन का नाश शरीर की दाबसे प्रायः तत्काल ही हो| जाता है यह भी दया का प्रत्यक्ष नमूना है !! १३. ढूंढिये साधुसाध्वी सदा मुंह के मुखपाटी बांधी रखते हैं । उस में वारंवार बोलने से थूक के स्पर्श से सन्मूछिम जीव की उत्पत्ति होती है । और निगोदिये जीवों की उत्पत्ति भी शास्त्रकारो नें कही है । निर्विवेकी ढूंढिये इस वात को समझते हैं तो भी अपनी विपरीत रूढि का त्याग नहीं करते हैं । इस से वे सन्मूच्छिम जीव की हिंसा करने वाले निश्चय होते है। _____१४. कितनेक ढूंढिये जंगल जाते हैं तब अशुचि को राख में मिला देते हैं । जिस में चूर्णिये जीवों की हिंसा करते हैं ऐसे जानने में आया है । यही इन के दयाधर्म की प्रशंसा के कारण मालूम होते हैं ! १५. ढूंढिये जब गोचरी जाते हैं तब कितनीक जगह के श्रावक उन को चौके से दूर खडे रखते हैं । मालूम होता है कि चौके में आने से वे लोक भ्रष्ट . १ जिस अनाज के दो फाड हो जावे और जिस के पीडने से तेल न निकले, ऐसा जो कठोल मांह, मूंगी, मोठ, चने, हरवे, मैथे, मसर, हरर आदि मिस्सा अनाज, उस की विदल संज्ञा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy