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________________ १५१ आप ___ तत्त्वानुबोधी और सत्यार्थ के इच्छुक भव्य जीवों के वास्ते मालूम करते हैं कि पूर्वोक्त श्रीआचारांगसूत्र का पाठ मिथ्यात्वी की अपेक्षा है ऐसे टीकाकार और महापंडित पूर्वाचार्य कह गये हैं। इस वास्ते इस पाठ में कहे फल के भागी सम्यग्दृष्टि जीव नहीं. तो तेतीसवें प्रश्नोत्तर में लिखे जिनप्रतिमा की पूजादि शुभ कार्य के फल के भागी हैं । और जिनप्रतिमा की पूजादि का फल श्रीतीर्थकर भगवंत ने यावत् मोक्ष कहा है। इस प्रश्न के अंत में जेठा लिखता है कि "मंदिर में वक्ष लगा हो तो साध काट डाले, ऐसे जैनधर्मी कहते हैं ।" उत्तर - यह लेख जेठमल की मूढ़ता का सूचक है, क्योंकि यह बात किस शास्त्र में कही है ? किस ने कही है ? किस तरह कही है ? उस का कारण क्या दर्शाया है ? उस कथन में क्या अपेक्षा है ? इत्यादि कुछ भी जेठ ने लिखा नहीं है। इस तरह सूत्र के या ग्रंथ के प्रमाण यिना लिखना सो उचित नहीं है। क्योंकि सूत्रादि के नाम लिखने से उस बात का ठीक खुलासा मिल सकता है, अन्यथा नहीं। ॥ इति ॥ ३६. जीवदया के निमित्त साधु के वचन बाबत : ३६. वें प्रश्नोत्तर में जेठमल ने श्रीआचारांगसूत्र का पाठ और अर्थ फिरा कर खोटा लिख कर प्रत्यक्ष उत्सूत्र की प्ररूपणा की है। इस वास्ते वह सूत्रपाठ यथार्थ अर्थ सहित तथा पूर्ण हकीकत सहित लिखते हैं। श्रीआचारांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध में ऐसे कहा है कि साधु ग्रामानुग्राम विहार करता जाता है। रास्ते में साधु के आगे होकर मृगां की डार निकल गई हो, और पीछे से उन हिरणों के पीछे वधक (अहेरी) आ जावे, और वह साधु को पूछे कि हे साधो ! तूने यहां से जाते हुए मृग देखे हैं ? तब साधु जो कहे सो पाठ यह है - "जाणं वा नो जाणं वदेजा" - अर्थ-साधु जाणता होवे तो भी कह देवे कि मैं नहीं जानता हूं, अर्थात् मैंने नहीं देखे हैं तथा श्रीसूयगडांगसूत्र के आठवें अध्ययन में कहा है कि - "सादियं न मुसं बूया एस धम्मो । वुसिमओ" अर्थ - मृग पृच्छादि बिना मृषा न बोले, यह धर्म संयमवंत का है, तथा श्रीभगवतीसूत्र के आठवें शतक के पहिले उद्देश में लिखा है कि- "मणसञ्च जोग परिणया वयमोस जोग परिणया"- अर्थ - मृग पृच्छादिक में मन में तो सत्य है, और वचन में मृषा है। इन तीनों पाठों का अर्थ हड़ताल से मिटा के ढूंढकों ने मनःकल्पित और का और ही लिख छोडा है । इस वास्ते ढूंढिये महामिथ्या दष्टि अनंत संसारी हैं । तथा जेठमल ढूंढक ने जो जो सूत्रपाठ मषाबाद द बोलने के निषेध वास्ते लिखे हैं, उन सर्व में उत्सर्ग मार्ग में मृषा बोलने का निषेध किया है ।। परंतु अपवाद में नहीं, अपवाद में तो मृषा बोलने की आज्ञा भी है, सो पाठ ऊपर लिख आए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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