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सम्यक्त्वशल्योद्धार
तता
मिथ्यादृष्टियों का यही लक्षण है । और "चेइयढे" तथा "निजरठ्ठी' इन दोनों शब्दों का एक सरीखा अर्थात् ज्ञान के अर्थे और निर्जरा के अर्थे ऐसा अर्थ जेठे ने लिखा है। परंतु सूत्राक्षर देखने से मालूम होगा कि पाठ के अक्षर और लगमात्र [विभक्ति प्रत्यय] अलग अलग और तरह के हैं, एक के अंत में "अढे" अर्थात् अर्थ है सो चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में निपात है उस को अत्यंत बाल के अर्थे दर्बल के अर्थे ग्लान के जिन प्रतिमा के अर्थे ऐसा अर्थ होता है; दूसरे पद के अंत में "अठ्ठी" अर्थात् 'अर्थी है सो प्रथमा विभक्ति है । उस का अर्थ "निर्जरा का अर्थी" जो साधु सो वेयावच्च करे ऐसा होता है। परंतु जेठे ने सत्य अर्थ छोड़ के दोनों शब्दों का एक सरीखा अर्थ लिखा है । इस लिये मालूम होता है कि जेठे को व्याकरण का ज्ञान बिलकुल नहीं था। तथा जैसा सूत्रपाठ है वैसा उस को नहीं दिखा है। इस से यह भी मालूम होता है कि उस के नेत्रों के भी कुछ आवरण था ।
श्रीठाणांगसूत्र तथा व्यवहारसूत्र आदि सूत्रों में दश प्रकार की वेयावच्च कही है, जिस का समावेश पूर्वोक्त पंदरह बोलों में हो गया है । इस वास्ते उन दश भेदों की बाबत जेठे की लिखी कुयुक्ति खोटी है ।
प्रश्न के अंत में जेठे निन्हवने लिखा है कि "उपाधि और अन्नपानी से ही| वेयावच्च करनी" यह समझ जेठे ढूंढक की अकल बिना की है । क्योंकि जो इन तीन भेद से ही वेयावच्च करनी होवे तो चतुर्विध संघ की वेयावच्च करने का भी पूर्वोक्त पाठ में कहा है । और संघ में तो श्रावक श्राविका भी शामिल है । तो उन की वेयावच्च साधु किस तरह करे ? जो आहार तथा उपधि से करे ऐसे ढूंढक कहते हैं तो क्या आप भिक्षा ला कर श्रावक श्राविका को देंगे ? नहीं, क्योंकि ऐसे करना उन का आचार नहीं है । तथा श्रावक श्राविका तो देने वाले हैं, लेना उन का आचार ही नहीं है । इस वास्ते अरे ढूंढको ! जवाब दो कि तीसरे व्रतको आराधने के उत्साह वाले साधुने चतुर्विध संघ की वेयावच्च किस रीति से करनी ? आखिर लिखने का यह है कि वेयावच्च के अनेक प्रकार हैं । जिस की जैसी संभव हो वैसी उस की वेयावच्च जाननी । इस लिये साधु जिनप्रतिमा की वेयावच्च करे सो बात संपूर्ण रीति से सिद्ध होती है । ढूंढिये इस मुताबिक नहीं मानते हैं इस से उन को निबिड मिथ्यात्व का उदय मालूम होता है । । इति । २५. श्रीनंदिसूत्र में सर्व सूत्रों की नोंध है । बारह अंग के नाम :
(१) आचारांग, (२) सूयगडांग, (३) ठाणांग, (४) समवायांग, (५) भगवती, (६) ज्ञाता, (७) उपासकदशांग, (८) अंतगड, (९) अनुत्तरोववाइ, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक, (१२) दृष्टिवाद। १. आवश्यकसूत्र :
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