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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार | (३) "तीर्थंकर के पास (रिसिपरिसाए जईपरिसाए) अर्थात् ऋषि की पर्षदा और यति की पर्षदा होती है ऐसे सूत्रो में कहा है परंतु नाग भूत और यक्ष की पर्षदा नहीं कही है और सिद्धायतन में रहे जिन बिंब के पास तो नाग भूत तथा यक्ष का परिवार कहा है । इस वास्ते सो अरिहंत की प्रतिमा नहीं ": ऐसे मंदमति जेठमल कहता है । उस का उत्तर-फक्त द्वेषबुद्धि से और मिथ्यात्व के उदय से जेठे निन्हवने जरा भी पाप होने का भय नहीं जाना है, क्योंकि सूत्र में तो प्रभु के पास बारह पर्षदा कही हैं । चार प्रकार के देवता और देवी यह आठ, साधु, साध्वी, मनुष्य और मनुष्य की चार यह कुल बारह पर्षदा कहाती हैं तो सिद्धायतन में छत्रधारी, चामरधारी आदि यक्ष तथा नागदेवता वगैरह की मूर्ति हैं । इसमें क्या अनुचित है ? क्योंकि जब साक्षात् प्रभु विचरते थे तब भी यक्षदेवता प्रभु को चामर करते थे। फिर वह लिखता है कि "अशाश्वती प्रतिमा के पास काउसगीए की प्रतिमा होती है और शाश्वती के पास नहीं होती है तो दोनों में कौन सी सच्ची और कौन सी झूठी ?" उत्तर-हम को तो दोनों ही प्रकार की प्रतिमा सच्ची और वंदनीय पूजनीय हैं, परंतु जो ढूंढिये काउसग्गीए सहित प्रतिमा तो अरिहंत की हो सही ऐसे कहते हैं तो मंजूर क्यों नहीं करते हैं ? परंतु जब तक मिथ्यात्वरूप जरकान (पीलीया रोग) हृदयरूप नेत्र में है तब तक शुद्धमार्ग का ज्ञान इनको नहीं होने वाला है। (४) सूर्याभ ने जिनप्रतिमा की मोरपीछी से पडिलेहणा की इसमें जेठमलने "साधु । पांच प्रकार के रजोहरण रखने शास्त्र में कहे हैं उनमें मोरपीछी का रजोहरण नहीं कहा है" ऐसे लिखा है, परंतु उस का इसके साथ राथ कोई भी संबंध नहीं है । क्योंकि मोरपीछी प्रभु का कोई उपकरण नहीं है, सो तो जिन प्रतिमा के ऊपर से बारीक जीवों की रक्षा के निमित्त तथा रज प्रमुख प्रमार्जन के वास्ते भक्तिकारक श्रावकों को रखने की है। (५) सूर्याभ ने प्रतिमाको वस्त्र पहिनाये इस बाबत जेठमल लिखता है कि "भगवंत तो अचेल हैं । इस वास्ते उनको वस्त्र होने नहीं चाहियें। यह लिखना बिलकुल मिथ्या है क्योंकि सूत्र में बाईस तीर्थंकरों को यावत् निर्वाण प्राप्त हुए वहां तक सचेल कहा है और वस्त्र पहिनाने का खुलासा द्रौपदी के अधिकार में लिखा गया है । (६) प्रभु को गहने न हो इस बाबत "आभरण पहिनाये सो जुदे और चढाये सो जुदे" ऐसे जेठमल कहता है । परंतु सो असत्य है; क्योंकि सूत्र में "आभरणारोहणं' ऐसा एक ही पाठ है और आभरण पहिनाने तो प्रभ की भक्ति निमित्त ही है। प्रथम की और दूसरी युक्ति को ठीक ठीक देखने से मालूम होता है कि जेठमल ने भोले लोकों को फसाने के वास्ते फक्त एक जाल रचा है, क्योंकि प्रथम युक्तिमें रायपसेणी सूत्र का प्रमाण दे के जीवाभिगमसूत्र के पाठ को असत्य करना चाहा, परंतु जब स्तन का वर्णन आया तो रायपसेणीसूत्रको भूला बैठा ! क्योंकि रायपसेणीसूत्र में भी कनकमय स्तन लिखे हैं - तथाहि - "तवणिज मयाचुचुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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