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सूक्ष्मजीव हत हो गये और प्रभु ने तो उन सेवक देवताओं को जिनभक्ति जान के निषेध नहीं किया। भगवंत केवलज्ञानी ऐसे जानते थे, कि सूर्याभ के आभियोगिक देवता इस मुताबिक करने वाले हैं और उस में असंख्यात जीवों की हानि है। परंतु उनको ना नहीं कही। इस वास्ते यह समझना कि जिस कार्य के करने से महाफल की प्राप्ति हो वैसे शुभ कार्य में भगवंत की आज्ञा है। इस वास्ते ऐसे ऐसे कुतर्क करने,
सूत्रपाठ नहीं मानना और अर्थ फिरा देना सो महा मिथ्यादृष्टियों का काम है। १२.
जेठमल लिखता है कि "सर्याभ आप वंदना करने को आया तब भगवंतने नाटक करने की आज्ञा नहीं दी । क्योंकि वह सावध करणी है और सावध करणी में भगवंत की आज्ञा नहीं होती हैः उस का उत्तर-भगवंतने नाटक की बाबत सूर्याभ के पूछने पर मौन धारण किया सो आज्ञा ही है । "नानुषिद्धमनुमतमिति
न्यायात्" अर्थात् जिसका निषेध नहीं उसकी आज्ञा ही समझनी'। लौकिक में भी कोई पुरुष किसी धनी गृहस्थ को जीमने का आमंत्रण करने को जावे और आमंत्रण करे तब वह धनी ना न कहे अर्थात् मौन रहे तो सो आमंत्रण मंजूर किया गिना जाता है। वैसे ही प्रभु ने नाटक करने का निषेध नहीं किया, मौन रहे, तो सो भी
आज्ञा ही है। तथा नाटक करना सो प्रभु की सेवाभक्ति है, यतः श्रीरायपसेणी सूत्रे - ___अहण्णं भंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वयं गोयमाइणां समणाणं निग्गंथाणं बत्तिसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसेमि ।।
अर्थ - सूर्याभ ने कहा कि है भगवन् ! मैं आप की भक्तिपूर्वक गौतमादिक श्रमण निग्रंथों को बत्तीस प्रकार का नाटक दिखाऊं ? इस मुताबिक श्रीरायपसेणी सूत्र के मूलपाठ में कहा है। इस वास्ते मालूम होता है कि सूर्याभ को भक्तिप्रधान है और भक्ति का फल श्रीउत्तराध्ययनसूत्र के २९ में अध्ययन में यावत् मोक्षपदप्राप्ति कहा है । तथा नाटक को जिनराज की भक्ति जब चौथे गुणठाणे वाले सूर्याभ ने मानी है तो जेठमल की कल्पना से क्या हो सकता है ? क्योंकि चौथे गुणठाणे से ले के चौदह में गुणठाणे वाले तक की एक ही श्रद्धा है । जब सर्व सम्यक्त्व धारियों की नाटक में भक्ति की श्रद्धा है, तब तो सिद्ध होता है कि नाटक में भक्ति नहीं मानने वाले ढूंढक जैनमत से बाहिर है, तथा इस ठिकाने सूत्रपाठ में प्रभु की भक्तिपूर्वक ऐसे कहा हुआ है तो भी जेठमल ने उस पाठ को लोप दिया है इससे जेठमल का कपट जाहिर होता है।
१३. जेठमल लिखता है कि "नाटक करने में प्रभुने ना न कही उसका कारण यह है कि सूर्याभ के साथ बहुत से देवता हैं, उनके निज निज स्थान में नाटक जुदे जुदे होते है । इस वास्ते सूर्याभ के नाटक को यदि भगवंत निषेध करें तो सर्व ठिकाने जुदे १ श्रीआचारांगसूत्र में भगवंत श्री महावीरस्वामी ने पंचमुष्ठि लोंच किया तब रत्नमयथाल में लोंच
के बालों को लेकर इंद्र ने कहाकि "अणुजाणेसि भंते अर्थात् हे भगवन् ! आप की आज्ञा होवे ऐसे कह कर क्षीरसमुद्र में स्थापन करे ।
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