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सम्यक्त्वशल्योद्धार
जा के भगवंत को वंदना नमस्कार करो । तुम्हारा नामगोत्र कह के सुनाओ । पीछे भगवंत के समीप एक योजन प्रमाण जगह पवन से तृण, पत्र, काष्ठ, कंडे, कांकरे (रोडे) और अशुचि वगैरह से रहित (साफ) करो । कर के गंधोदक की वृष्टि करो । जिस से सर्व रज शांत हो जावे अर्थात् बैठ जावे, उड़े नहीं । पीछे जलथल के पैदा भये फूलों की वृष्टि, दंडी नीचे और पांखडी ऊपर रहे वैसे जानु (गोडे) प्रमाण करो । कर के अनेक प्रकार की सुगंधी वस्तुओं से धूप करो यावत् देवताओं के अभिगमन करने योग्य (आने लायक) करो ।
सूर्याभ देवता का ऐसा आदेश अंगीकार कर के आभियोगिक देवता वैक्रियसमुद्घात करे, कर के भगवंत के समीप आवे, आयके वंदना नमस्कार कर के कहे कि हम सूर्याभ के सेवक हैं और उस के आदेश से देव के चैत्य की तरह आप की पर्युपासना करेंगे ऐसे वचन सुनके भगवंत ने कहा यतः श्रीराजप्रश्नीयसूत्रे -
पोराणमेयं देवा जीयमेयं देवा कियमेयं देवा करणिजमेयं देवा आचीन्नमेयं देवा अब्भणुन्नायमेयं देवा ।।
अर्थ - चिरंतन देवताओं ने यह कार्य किया है । हे देवताओं के प्यारे ! तुम्हारा यह आचार है, तुम्हारा यह कर्त्तव्य है, तुम्हारी यह करणी है। तुम को यह आचारने योग्य है और मैंने तथा सर्व तीर्थंकरोंने भी आज्ञा दी है। इस मुताबिक भगवंत के कहे पीछे वे आभियोगिक देवता प्रभु को वंदना नमस्कार कर के पूर्वोक्त सर्व कार्य करते हुए । इस पाठ में जेठमल कहता है कि "सूर्याभ ने देवता के अभिगमन करने योग्य करो ऐसे कहा परंतु ऐसे नहीं कहा कि भगवंत के रहने योग्य करो " उस का उत्तर-देवता के आने योग्य करो ऐसे कहा । उस का कारण यह है कि देवता के अभिगमन करने की जगह अति सुंदर होती है। मनुष्यलोक में वैसी भूमि नहीं होती है। इस वास्ते सूर्याभ का वचन तो भूमि का विशेषण रूप है और उस में भगवंतका ही बहुमान और भक्ति है ऐसे समझना ।
"जलय थलयः" इन दोनों शब्दो का अर्थ जल के पैदा भये और थल के पैदा भये ऐसा है उस को फिराने के वास्ते जेठमल कहता है कि "सूर्याभ के सेवक ने पुष्प की वृष्टि की वहां (पुप्फवद्यालं विउव्वई) अर्थात् फूल का वादल विकुर्वे ऐसे कहा है । इस वास्ते वे फूल वैक्रिय ठहरते हैं और उससे अचित्त भी हैं" यह कहना जेठमल का मिथ्या है । क्योंकि फूलों की वृष्टि योग्य बादल विकुर्वन से है । परंतु फूल विकुर्वे नहीं हैं । इस वास्ते वे फूल
यहां तो देवताके योग्य कहा, परंतु चौतीस अतिशय में जो सुगंध जलवृष्टि, पुष्पवृष्टि आदिक लिखी है सो किस के वास्ते लिखी है ? जहा हृदयनेत्र खोल के समवायांगसूत्र के चौतीस में समवाय में चौतीस अतिशयों का वर्णन देखो !
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