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सम्यक्त्वशल्योद्धार
जेठमल ने लिखा है कि "द्रौपदी सम्यग्दृष्टि ही नहीं थी तथा श्राविका भी नहीं थी | क्योंकि उसने श्रावकव्रत लिये होते तो पांच भर्त्तार (पति) क्यों करती ?" उत्तर - द्रौपदीने | पूर्वकृत कर्म के उदय से पंच की साक्षी से पांच पति अंगीकार किये है परंतु उस की कोई पांच पति करने की इच्छा नहीं थी । और इस तरह पांच पति करने से भी उस के | शीलव्रत को कोई प्रकार की भी बाधा नहीं हुई है । और शास्त्रकारों ने उस को महासती कहा है । तथा बहुत से ढूंढिये भी उस को सती मानते हैं । परंतु अकल के दुश्मन | जेठमल की ही मति विपरीत हुई है । जो उस ने महासती को कलंक दिया है, और उस से महा पाप का बंधन किया है। कहा है कि "विनाशकाले विपरीत बुद्धिः । "
श्रीभगवतीसूत्र में कहा है कि जघन्य से चाहे कोई एक व्रत करे तो भी वह श्रावक कहाता है, पुनः उसी सूत्र में उत्तर गुण पच्चक्खाण भी लिखे हैं; तथा श्रीदशाश्रुतस्कंधसूत्र में "दंसण सावए " अर्थात् सम्यक्त्वधारी को भी श्रावक कहा है । श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रवृत्ति में भी द्रौपदी को श्राविका कहा है । श्रीज्ञातासूत्र में कहा है कि
तएणं सा दोवइ देवी कच्छुल्लणारयं असंजय अविरय अप्पsिहय अप्पच्चक्खाय पावकम्मं तिकट्टु णो आढाई णो परियाणाइ णो अभुट्ठेई ||
अर्थ जब नारद आया तब द्रौपदी देवी कच्छुलनामा नव में नादर को असंजती, अविरती, नहीं हने, नहीं पञ्चखे पापकर्म जिसने ऐसे जान के न आदर करे, आया भी न जाने, और खड़ी भी न होवे ।
अब विचार करो कि द्रौपदी ने नारद जैसे को असंजती जान के वंदना नहीं की है । | तो इस से निश्चय होता है कि वह श्राविका थी, और उस का सम्यक्त्वव्रत आनंद श्रावक सरीखा था । तथा अमरकंका नगरी में पद्मोत्तर राजा द्रौपदी को हर के ले गया । | उस अधिकार में श्रीज्ञातासूत्र में कहा है कि
तणं सा दोवइ देवी छठ्ठे छठ्ठेणं अणिखित्तेणं आयंबिल परिग्गहिएणं | तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ ||
अर्थ पद्मोत्तर राजाने द्रौपदी को कन्या के अंते पुर में रखा, तब वह द्रौपदी देवी | छठ्ठ छठ्ठ के पारणे निरंतर आयंबिल परिगृहीत तपकर्म कर के अर्थात् बेले बेले के पारणे आयंबिल करती हुई आत्मा को भावती हुई विचरती है । इस से भी सिद्ध होता | है कि ऐसे जिनाज्ञायुक्त तप करने वाली द्रौपदी श्राविका ही थी ।
श्रीमल्लिनाथस्वामी जमालि सरीखे हो गये ? कदापि नहीं, तथा इसी ज्ञातासूत्र के पाठ से सूत्रों में भलामणा, लिखने वाले आचार्यने दी है; यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है: नहीं तो जमालिजी श्रीमहावीरस्वामी के समय में हुआ उसके निर्गमन की भलामणा श्रीमल्लिनाथस्वामी के अधिकार में कैसे हो सकेगी ? श्रीज्ञातासूत्र का पाठ यह है
"एवं विणिग्गमो जहा जमालीस्स
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