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________________ मानव की लेखिनी का बल भी असाधारण होता है । और वह बल मानव समाज के हित और कल्याण के लिये ही अर्जित और व्यय किया जाता है। मेरे जैसे साधारण या किसी अन्य महान लेखक के कहने से नहीं-(और मेरे जैसे का इस प्रकार लिखना या कहना अपनी वाणी और लेखिनी को पवित्र करना ही है ) बल्कि अपने में स्वयं लेखक के अनुभव और श्रम द्वारा उद्भासित होने से ऐसी कृति महान होती है। किसी महापुरुष के जीवन सम्बन्धी, ग्रन्थ की रचना लेखन कला में बड़ी प्रवीणता और दक्षता मांगती है। जब तक चरितनायक के जीवन, उसके जीवन की घटनाओं, उसके विचारों और कृत्यों में अपने को घुला मिलाकर भी अलग रहकर न देखें, और उन संस्कारों में झांककर उसकी प्रवृत्तियों का मनन करके अपनी एकाकारता द्वारा उसे स्वस्थ रूप में चिन्तन न करें तब तक वह रचना सफल नहीं हो सकती । इस ग्रन्थ में इन सभी उपकरणों का समावेश है । इसके अतिरिक्त इसमें प्रसंगोपात्त आस्तिक नास्तिकवाद, ईश्वरवाद, अद्वैतवाद, मुक्तिवाद. अनेकान्तवाद और मूर्तिवाद आदि अनेक दार्शनिक और धार्मिक विषयों का विशद विवेचना की गई है। सारांश कि पूज्य आचार्यश्री ने अपनी इस रचना को केवल जैन स्वाध्यायियों की दृष्टि से ही नहीं अपितु समूचे मानव समाज के अध्ययन मनन की दृष्टि से इसे सब की वस्तु बनाकर उत्कृष्ट और महान बना दिया है। इसलिये यह ग्रन्थ ही नहीं बल्कि इसे पढ़ने का अवसर जिन सज्जनों को प्राप्त होगा वे भी धन्य होंगे। अतः इन पंक्तियों पर अधिक ध्यान न देकर पाठक आचार्यश्री की इस महान कृति का अध्ययन श्रारम्भ करें, जीवन में यह भी एक करने योग्य कार्य है। इसे कीजिये और कृतकृत्य हूजिए ! इतना सा कर्तव्य भार निभाकर मैं भी विमरता हूँ। वि०-हंसराज .indainpalANAS Timi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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