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कल्याण ही उनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य रहा । इस उद्देश्य को उन्होंने जीवन रहते पूरा करने का भरसक प्रयास किया | जैन समाज की जो अभूतपूर्व सेवाऐं उन्होंने की हैं वे उनके विशिष्ट ज्ञान, संयम त्याग और तपोमय जीवन के ज्वलन्त उदाहरण हैं, उन्हीं में से अन्तिम इस ग्रन्थ की रचना है ।
जीवन के प्रारम्भ में ही उन्हें सांसारिकजीवन - गृहस्थजीवन के प्रति वैराग्य उत्पन्न होगया, लगभग १३ वर्ष की अल्पायु में ही चरित्रनायक के उपदेशामृत से वैराग्य की यह भावना परिपक्व हुई और उन्हीं की शरण में आकर आपने इस कल्याणमय संयम मार्ग का अनुसरण किया। जीवन में गुरुदेव से जो पाया उसी पूंजी से मानव समाज ही नहीं प्राणिमात्र की ६६ वर्ष पर्यन्त सेवा की । प्रत्येक जनहित कार्य में परम श्रद्धेय गुरुदेव की पुनीत स्मृति उनका मार्ग निदर्शन करती रही ।
गुरुदेव के प्रति मनकी श्रद्धा और भक्ति के भाव जब २ वर्षा ऋतु की बाढ के वेग से उमड़ते और संभाले न संभलते तब २ उन भात्रों को लेखिनी द्वारा बन्द कराते गये। इस तरह इस महान् ग्रंथ की रचना हुई जब तक स्वयं जीवित थे, वे गुरु महाराज का सबसे बड़ा जीवित स्मारक थे, जिन्होंने चरितनायक महामुनि श्री आत्मारामजी महाराज के दर्शन किये और तत्पश्चात् ग्रंथकर्ता (आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरिजी ) को भी कर्मरत देखा, वे बरबस कह उठते कि जैसे गुरु थे वैसे ही बल्कि उनसे भी बढ़कर उनके शिष्य हैं और जब जीवन की लीला समाप्त की तो जाते हुए गुरुदेव के स्मारक रूप में अनेक विद्यालय, गुरुकुल, कालेज, हाईस्कूल, कन्या पाठशाला, पुस्तकालय, गुरुमन्दिर और धर्मशाला आदि के साथ २ अपनी यह रचना भी छोड़ गये ।
इस ग्रन्थ के अवलोकन से पाठकों को - ( जिन्हें लेखक से थोड़ा भी सम्पर्क प्राप्त हुआ हो उन्हें विशेषतया और जिन्हें यह सौभाग्य नहीं मिला उन्हें साधारणतया ) लेखक के सौम्य स्वभाव, गम्भीर अध्ययन, उर्वर मस्तिष्क, स्वस्थ विवेचन शैली, अदम्य प्राशक्ति, जाग्रत विवेक और मानव के साधनसम्पन्न रूप के दर्शन होंगे। उन्होंने अपने चरितनायक गुरुदेव के जीवन की घटनाओं के विशद वर्णन में तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों की सम्यग् विवेचना की है । स्वयं धार्मिक नेता और संसार से विरक्त होते हुए, एक परम मेधावी परम तपस्वी सांसारिक व्यामोह से अतीत महापुरुष की जीवनी लिखते हुए भी संसारियों के लिये सांसारिक जीवन को सफलता पूर्वक यापन करने के विषय में भी बड़ी बारीकी से विचार किया है। गुरु महाराज के जीवन को ध्रुत्र मानकर जीवन के प्रत्येक पहलू का सूक्ष्म और गहन दृष्टि से अवलोकन किया है। उनके ज्ञान चक्षु और चर्म-चतु दोनों में एक सामंजस्य स्थापित कर जीवन को देखा है । हृदय और मस्तिष्क, भावना और कर्तव्य के सन्तुलन को कायम रक्खा है । जीवन में ही नहीं लेखन कला में भी यह कठिन साध है । गुरुदेव की जीवनी को उन्होंने कागज पर ही नहीं लिखा अपने कार्य से उसे जीवन - पृष्ठों पर भी अंकित किया। दोनों दिशाओं में वे सफल रहे, यही उनकी महानता और महान् सफलता है। उन्होंने कहा और किया, किया तब कहा, ऐसे आदर्श
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