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________________ ४२४ नवयुग निर्माता षट पीर सात डार आठ छार पांच जार चार मार तीन फार लार तेरी फरे है, तीन दह तीन गह पांच कह पांच लह पांच गह पांच बह पांच दर करे है। नव पार नव धार तेरक विडार डार दशकं निहार पार आठ सात लरे है, आतम सुज्ञान जान करतो अमर थान हरके तिमिर मान ज्ञानभान चरे है ।। ५५ ।। शीतल सरूप धरे राग द्वेष वास जरे मनकी तरंग हरे दोषनकी हान रे, सुंदर कपाल उंच कनक वरण कुच अधर अनंग रुच पीक धुन गान रे । षोडश सिंगार करे जोबनके मद भरे देखके नमन चरे जरे कामरान रे, ऐसी जिन रीत मित आतम अनंग जित काको मूढ वेद धीत ऐही ब्रह्मज्ञान रे ।। ५६ ।। हिरदेमे सुन भयो सुधता विसर गयो तिमिरअज्ञान छयो भयो महादुःखीयो, निज गुण सुज नाहि सत मत बुज नाहि भरम अरुझे ताहि परगुण रुशीयो। ताप करवेको सुर धरम न जाने मूर समर कसाय वह्नि अरणमे धुखीयो, आतम अज्ञान बल करतो अनेक छल धार अघमल भयो मूढनमे मुखीयो । ५७ ॥ लंबन महान अंग सुंदर कनक रंग सदन वदन चंग चांदसा उजासा है, रसक रसील द्र(ट)ग देख माने हार मृग शोभत मांदार शृङ्ग आतम बरासा है। सनतकुमार तन नाकनाथ गुण मन दव आय दरशन कर मन आसा है, छिनमे बिगर गयो क्या हे मूढ मान गयो पानीमें पतासा तेसा तनका तमासा है ।। ५८ ।। क्षीण भयो अंग तोउ मूढ काम धन जोउ की(क)हा करे गुरु कोउ पापमति साजी है, खे(ख)लने शांघान चाट माने सुख करो थाट आनन उचाट मूढ ऐसी मति चाजी है। मूत ने पुरिश परि महादुरगंध भरी ऐसी जोनी वास करी फेर चहे पाजी है, करतो अनित रीत आतम कहत मित गंदकीको कीरो भयो गंदकीमें राजी है ॥ ५६ ।। त्राता धाता मोक्षदाता करता अनंत साता वीर धीर गुण गाता तारो अब चेरेको, तु ज (तुम) है महान मुनि नाथनके नाथ गुणी से निसदिन पुनी जानो नाथ देरेको । जैसो रूप बाप धरो तैसो मुज दान करो अंतर न कुछ करो फेर मोह चेरेको, आतम सरण पर्यो करतो अरज खरो तेरे विन नाथ कोन मेटे भव फेरेको ? ॥६॥ ज्ञान भान का(क)हा मोरे खान पान ता(दा)रा जोरे मन हु विहंग दोरे करे नाहि थीरता, मुजसो कठोर घोर निज गुण चोर भोर डारे ब्रह्म डोर जोर फीरु जग फोरता। अब तो छी(ठि)काने चर्यो चरण सरण पर्यो नाथ शिर हाथ धर्यो अघ जाय खीरता, आतम गरीब साथ जैसी कृपा करी नाथ पीछे जो पकरो हाथ काको जग फीरता ।। ६१ ।। शी(खि?)लीवार ब्रह्मचारी धरमरतन धारी जीवन आनंदकारी गुरु शोभा पावनी, तिनकी कृपा ज करी तत्त्व मत जान परि कुगुरु कुसंग टरी सद्ध मति धावनी। पढतो आनंद करे सुनतो विराग धरे करतो मुगत वरे आतम सोहावनी, संवत तो मुनि कर निधि इंदु संख धर तत चीन नाम कीन उपदेशबावनी ।। ६२ ।। करता हरता आतमा, धरता निर्मल ज्ञान; वरता भरता मोक्ष को, करता अमृत पान. १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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