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________________ उपदेश बावनी पुन ही (वी ?) ते हाथ रीते संपत विपत लीते हाय साद रोद कीते जर्यो निज नाथ (थान ? ) रे सोग भरे छोर चरे वनमे विलाप करे आत्म सीयानो काको करता गुमान रे ॥ ४६ ॥ भूल परी मीत तोय निज गुन सब खोय कीट ने पतंग होय अप्पा वीसरतु है, हीन दीन डीन चास दास वास खीन त्रास काश पास दुःख भीन ज्ञानते गीरतु है । दुःख भरे भूर मरे आपदा की तान गरे नाना सुत मित करे फिर वीसरतु है, तम अखंड भूप करतो अनंत रूप तीन लोक नाथ होके दीन क्यूं फीरतुं है ? ॥ ४७ ॥ महाजोधा कर्म सोधा सत्ताको सरूप बोधा ठारत अगन क्रोधा जडमति धोया हुँ, अजर अमर सिद्ध पुरन अखंड रिद्ध तेरे बिन कौन दीध सब जग जोया हुँ । स तु न्यारो भयो चार गति वास थयो दुःख कहूँ (?) अनंत लयो आतम वीगोया हुँ, करता भरम जाल फस्यो हुं बीहाल हाल तेरे बिन मित मैं अनंत काल रोया हूँ ॥ ४८ ॥ आठ कुमतासें प्रीत करी नाथ मेरे हरे सब गुन तेरे सत बात बोलं हुँ, महासुखकारी प्यारी नारी न्यारी छारी धारी मोह नृप दारी कारी दोष भरे तोरुं हुँ । हित करुं चित्त धरूं सुख के भंडार भरुं सम्यक सरूप धरुं कर्म छार छोरुं हुँ, पयार कर कतां (कुमत ?) भरम हट तेरे विन नाथ हुँ अनाथ भइ डोलुं हुँ ॥ ४६ ॥ रुल्यो हूँ अनादि काल जग में बीहाल हाल काट गत चार जाल ढाल मोहकीर को, नर भव नीठ पायो दुषम अंधेर छायो जग छोर धर्म धायो गायो नाम वीर को । कुगुरु कुसंग नो (तो) र सत मत जोर दोर मिथ्यामति करे सोर कौन देवे धीरको ?, आम गरीब खरो अब न विसारो घरो तेरे विन नाथ कौन जाने मेरी पीर को ? ॥ ५० ॥ रोग सोग दुःख परे मानसी वीथाकुं घरे मान सन्मान करे हुँ करे जंजीरको, मंदमति भूप (त) रूप कुगुरु नरक हूत संग करे होत भंग काची (कांजी ?) संग छिरको । चंचल विहंग मन दोरत अनंत ( ग ?) वन घरी शीर हाथ कौन पूछे वृग नीरको, आम गरीब खरो स ( अ ) ब न विसारो धरो तेरे बीन नाथ कौन मेटे मेरी पीरको ॥ ५१ ॥ लोक बोक जाने की तम अनंत मीत पुरन अखंड नीत अव्याबाध भूपको, चेतन सुभाव धरे जडतासो दूर परे अजर अमर खरे छांडत विरूपको । नरनारी ब्रह्मचारी श्वेत श्याम रूपधारी करता करम कारी छाया नहि धूपको, अमर अकंप धाम अधिकार बुध नाम कृपा भइ तोरी नाथ जान्यो निज रूपको ।। ५२ ।। वर वर करूं तो सावधान कौन होय मिता नहि तेरो कोय उंधी मति छइ है, नारी प्यारी जान धारी फिरत जगत भारी शुद्ध बुद्ध लेत सारी लुंठवेको ठइ है । संग करो दुःख भरो मानसी अगन जरो पापको भंडार भरो सुधीमति गइ है, तम अज्ञान धारी नाचे नाना संग धारी चेतनाके नाथकं अचेतना क्या भइ है १ ।। ५३ ।। शीत सहे ताप दहे नगन शरीर रहे घर छोर वन रहे तज्यो धन थोक है, वेद ने पुराण परे तत्त्वमसि तान धरे तर्क ने मीमांस भरे करे कंठ शोक है । क्षणमति ब्रह्मपति संख ने करंणाद गति चारवाक न्यायपति ज्ञान विनु बोक है. रंगवी (ब)हीरंग अ मोक्षके न अंग कल्लु आतम सम्यक विन जाएयो सब फोक है ॥ ५४ ॥ Jain Education International ४२३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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