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________________ अध्याय ११८ "विरोधियों की सज्जनता का दिग्दर्शन " जिस समय आचार्य देव के स्वर्गवास की खबर शहर में पहुंची उसी वक्त उनके प्रति चिरकाल से मकती हुई विद्वेष की अन्तर्वाला को शान्त करने के लिये कितने एक महानुभावों ने इस अवसर को बहुत अनुकूल समझा । उन्होंने ऐसे करुणामय अतिशोक जनक समय में अपनी सज्जनता का जिस रूप में परिचय दिया उसको देखते हुए तो कोई भी विचारशील पुरुष मानव के चोले में बसे हुए इनके दानव कृत्य की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता । परन्तु इस जघन्य प्रवृत्ति में इनको सर्वथा विफलता का मुंह देखना पड़ा और चारों शाने चित्त गिरे । श्राचार्य देव के तेजोमय पुण्यपुंज के सन्मुख ये सब हतप्रभ हो गये । और इनकी दुर्जनता आचार्यश्री की साधु सज्जनता में सदा के लिये डूबगई । इन लोगों ने किसी कल्पित नाम से वहां के डि.सी. को तार दिया और लिखा- यहां पर जैन साधु आत्मारामजी की मृत्यु स्वाभाविक नहीं किन्तु किसी ने इनको विष दे दिया है इसलिये जब तक इसका निर्णय न हो जावे तब तक इनके शरीर को अग्निदाह करने की आज्ञा नहीं होनी चाहिये । परन्तु इन विरोधी सज्जनों का यह आखीरी वार भी खाली गया । महाराजश्री का देह संस्कार बड़े सम्मान और समारोह के साथ होगया । चन्दनमयी चिता से निकलती हुई ज्वालाओं ने चारों तरफ सुगन्धमय धूम को फैलाकर वहां के दूषित वातावरण को शुद्ध कर डाला, ' और धूम की उत्कट सुगन्ध से संत्रास को प्राप्त हुई विरोधी लोगों की सज्जनता तो सिरपर पांव रखकर वहां से भाग निकली । सत्य है Jain Education International कर्णेजपानां वचन प्रपंचा महात्मनः कापि न दूषयन्ति । भुजंगमानां गरल प्रसंगान्नापेयतां यांति महासरांसि ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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