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अध्याय ११७
" गुजरांवाला में सदा के लिये"
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वाले, में एक विशाल सरस्वती मन्दिर विद्यालय की स्थापना करने की सद्भावना आपने ज्येष्ट कृष्णा षष्ठी के दिन सनखतरे से विहार कर दिया। परन्तु विहार का यह दिन जैन संसार के लिये बड़ा ही मनहूस - श्रनिप्रद साबित हुआ । यद्यपि चातुर्मास निकट था और गर्मी प्रतिदिन अधिक होती जा रही थी फिर भी चातुर्मास के आरम्भ होने से पहले २ आपका विचार पसरूर, स्यालकोट और जम्मू आदि नगरों को पावन करने के बाद गुजरांवाला पहुंचने का था । इसलिये सनखतरे से बिहार करके किला सोभासिंह होते हुए आप पसरूर में पधारे । यद्यपि आपका इरादा यहां पर पांच सात दिन ठहर कर जनता को धर्मोपदेश करने का था परन्तु साधुयोग्य आहार पानी की सुविधा न होने से आपको उसी दिन करीबन चार बजे - विहार करना पड़ा। वहां से छछरांवाली, सतराह और सोरावाली होते हुए
$ जिस समय श्राचार्यश्री लुधियाने ( १६५२ ) में विराजमान थे, उस वक्त आपके श्रद्धालु एक क्षत्रिय ने श्रापसे कहा कि महाराज ! श्राप मन्दिर बनवा रहे हैं यह तो ठीक, परन्तु इनके श्रद्धालु पुजारी पैदा करने के लिये आपको सरस्वती मन्दिरों की स्थापना की ओर भी लक्ष्य देना चाहिये ! इस पर श्रापश्री ने फर्माया - प्यारे ! तुमारा कहना ठीक है, मैं भी इस बात को समझता हूँ परन्तु सर्व प्रथम इनकी - श्रावकों की श्रद्धा को कायम रखने के लिये इन मन्दिरों की आवश्यकता थी सो यह काम तो प्राय: पूर्ण हो चुका और इसमें जो कमी होगी, वह भी धीरे २ पूरी हो जावेगी । अब मैं सरस्वती मन्दिरों की स्थापना की ओर ही अधिक ध्यान देने का यत्न करूगा । इसके लिये गुजरांवाला ही सारे पंजाब में अधिक उपयोगी हो सकता है । मैं अब उसी तरफ विहार कर रहा हूँ, अगर जीवन ने साथ दिया तो वैसाख में सनखतरे की प्रतिष्ठा कराकर सीधा गुजरांवाला पहुंच सर्व प्रथम इसी काम को हाथ में लेने का यत्न करूंगा । [ मगर अफसोस ! काल की क्रूरता ने आचार्यश्री की यह सद्भावना उनके जीतेजी फलीभूत होने नहीं दी ]
$ पसरूर में उन दिनों शुद्ध सनातन जैनधर्म के अनुयायी एक भी श्रावक का घर नहीं था । सबके सब ढूंढक मतके ही कट्टर पुजारी थे । इसलिये वहां से साधु के ग्रहण योग्य प्रासुक उष्ण जल पीने के लिये उपलब्ध नहीं हुआ और
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