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________________ ४०८ नवयुग निर्माता तदनन्तर मूर्ति बनाने की आज्ञा देते हुए ला० गुज्जरमल ने उस कारीगर से कहा- देखो गुरुदेव की मूर्ति में कोई खामी न रहनी पावे वह अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक होनी चाहिये । और जहांतक बने जल्दी से जल्दी तैयार करने की कोशिश करना, इसके लिये तुम्हें मुँह मांगे पैसे और साथ में इनाम भी दिया जायगा । इतना कहने के बाद श्राचार्यश्री के चरणों का स्पर्श करते हुए ला गुज्जरम ने कहा कि गुरुदेव ! आज मेरी मनोकामना पूर्ण हुई । जिससे मैं अपने को बहुत भाग्यशाली ही मानता हूँ । आप जैसे महान् उपकारी सद्गुरु का पुण्य संयोग मुझे भव भव में प्राप्त होता रहे यही शासन देव से मेरी बार बार प्रार्थना है । आचार्यश्री- - अच्छा भाई ! तुम्हारी जैसी भावना | तुम्हारे जैसे सुलभ बोधी जीव भी संसार में विरले ही होते हैं । आचार्यदेव की नितान्त सुन्दर और मनोनीत मूर्ति जयपुर से बनकर आगई और बड़े समारोह के साथ होशयारपुर के विशाल देवमन्दिर में उसे विधिपूर्वक प्रतिष्ठित किया गया परन्तु यह कहते हुए अत्यन्त खेद होता है कि मूर्ति बनकर आने और मन्दिर में उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करने से पहले ही गुरुदेव स्वर्ग सिधार गये, उसकी प्रतिष्ठा का सारा भार मुझ किंकर पर छोड़कर । गुरुदेव के स्वर्गवास से लगभग चार वर्ष बाद अर्थात् वि० सं० १६५७ के वैसाख मास में उसे प्रतिष्ठित किया गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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