________________
अध्याय ११०
"जंडयालागुरु में साधुओं का योगोदरहन"
अमृतसर से बिहार करके आचार्यश्री जंडयालागुरु में पधारे और १६५० का चातुर्मास वहीं पर किया । चातुर्मास में श्री सुयगडांग सूत्र और श्री वासुपूज्य चरित्र का व्याख्यान करते रहे। तथा श्रावकों की प्रेरणा से आपने स्नात्र पूजा की रचना की। यहां घुटनों में कुछ दर्द हो जाने के कारण चौमासे के बाद भी आपको कुछ समय यहां पर ही ठहरना पड़ा । इस अवसर में श्री कमल विजय श्री वीर विजय और श्री कान्तिविजयजी महाराज अपने शिष्य परिवार के साथ गुजरांवाला में चौमासा पूरा करने के बाद आचार्यश्री के दर्शनार्थ जंडयाला में आये और आचार्यश्री से अपने नवीन साधुओं की बड़ी दीक्षा के निमित्त योगोद्वहन कराने के लिये प्रार्थना की । तब आचार्यश्री ने उक्त प्रार्थना को स्वीकार करते हुए, नवीन साधुओं को जडयाला में योगोद्वहन कराकर उनका छेदोपस्थापनीय संस्कार (बड़ी दीक्षा ) पट्टी में जाकर कराया । जिन साधुओं को बड़ी दीक्षा से अलंकृत किया उनके गुरु सहित नाम इस प्रकार हैं
मुनि श्री दान विजयजी-मुनि श्री वीरविजयजी महाराज के शिष्य । मुनि श्री चतुर्विजयजी
६ मुनि श्री कांतिविजयजी महाराज के शिष्य । मुनि श्री लाभविजयजीमुनि श्री कर्परविजयजी-मुनि श्री उद्योतविजयजी महाराज के शिष्य । मुनि श्री तीर्थविजयजी-मुनि श्री हंसविजयजी महाराज के शिष्य । मुनि श्री विवेकविजयजी-मुनि श्री वल्लभविजयजी महाराज के शिष्य ।
छेदोपस्थापनीय संस्कार कराने अर्थात् नवीन साधुओं को योगोद्वहन कराकर बड़ी दीक्षा देने का यह आपके जीवन में दूसरा मौका है, इससे पूर्व आपने श्री वल्लभविजय और श्री मोती विजयजी आदि नवीन साधुओं को पाली में योगोद्वहन कराकर बड़ी दीक्षा दी थी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org