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________________ आर्य समाज के ला० देवराज और मुन्शीरामजी से वार्तालाप ३७६ दोनों की अपेक्षा रहती है और जहां इच्छा और प्रयत्न हों वहां प्रेरकता का होना भी अवश्यंभावी है, इस दृष्टि से संसार में जो कुछ भी शुभाशुभ हो रहा है उसका सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर ही आवेगा, उसकी प्रेरणा के बिना संसार के किसी भी पदार्थ में प्रवृति या निवृत्ति रूप क्रियाशीलता नहीं आ सकती। इसलिये आपके विचारानुसार तो इन मतमतान्तरों के भेद का वही एक कारण हो सकता है । अतः उसी से पूछना चाहिये कि आपने ऐसा विचित्र माया-जाल क्यों पसार रक्खा है, जिससे मामूली से मतभेद पर भी एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और मरने मारने पर तैयार हो जाता है। ____ ला० मुन्शीराम -महाराज ! इसमें कुछ अन्तर है, ईश्वर सृष्टि को जीवों के कर्मानुसार पैदाकरता है, जीवों के जैसे २ शुभाशुभ कर्म होते हैं उनके अनुसार ही ईश्वर उस २ योनि में उत्पन्न करता है। सब जीव अपने २ कर्मों के अनुसार सुख या दुःख भोगते हैं । ईश्वर तो जीवों को उनके कर्मानुसार फल देता है। अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा । जीव कर्म के करने मे स्वतन्त्र और उसके फल भोगने में वह परतंत्र अथवा ईश्वराधीन है । इसलिये हमारे मतभेद या मतमतान्तरों के सम्बन्ध में ईश्वर पर कोई दोष नहीं आ सकता। आचार्यश्री-मैंने तो पहले ही कहा था कि आपस के विचार भेद से ही मतमतान्तरों को जन्म मिला है, इसमें ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं । इसलिये ईश्वर एक हो या अनेक वह तो साक्षीरूप है। हमारे मतभेद में वह किसी प्रकार को भी प्रेरणा नहीं देता । परन्तु यदि उसे सृष्टि का कर्ता धर्ता माना जाय तो वह प्रेरक बन जाता है, कारण कि कर्तृत्व का अर्थ है "चिकीर्षाकृतिमत्व” अर्थात् करने की इच्छा और तदनुसार व्यापार-प्रवृत्ति तब जहां इच्छा और प्रयत्न होंगे वहां प्रेरणा भी अवश्य होगी । “दृष्टानुसारिणी अदृष्ट कल्पना भवति" अर्थात् दृष्ट के अनुसार अदृष्ट की कल्पना होती है इस न्याय से, घड़े को बनाने की इच्छा रखने वाला कुम्हार प्रथम मृत्तिका को अमुक आकार में लाने के लिये जो प्रयत्न करता है उसके बुद्धि और प्रयत्नानुसार वह मृत्तिका अमुक आकार को धारण करती हुई घड़े के रूप में परिवर्तित होती है । इस परिवर्तन में जैसे कुम्हार की आन्तरिक प्रेरणा काम करती है उसी प्रकार प्रकृति या परमाणुओं को हरकत में लाकर सृष्टि के तमाम स्थूल सूक्ष्म पदार्थों की रचना में ईश्वर की प्रेरणा ही तो काम करेगी, अन्यथा इनमें किया या परिणति का सम्भव ही नहीं हो सकता । ईश्वर को सृष्टिकर्ता या रचयिता मानने वालों की सबसे प्रबल युक्ति यही है कि जड़ पदार्थ में रचना का स्वयं बोध नहीं। इसलिये उनकी बातरतीब रचना में किसी चेतन का हाथ जरूर है, वही इसको अमुक आकार से अमुक आकार में लाता है । परन्तु इस युक्ति में जो रचयिता पर प्रेरक होने का दोष आता है, उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता । स्रष्टा सदा ही प्रेरक होता है तब प्रेर्य के सम्बन्ध में जिन गुण दोषों की कल्पना की जाती है उनका उत्तरदायित्व तो प्रेरक पर है न कि प्रेय पर भी, वह तो परतन्त्र होने से परवश है। अतः शुभाशुभ करने या उसका सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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