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________________ अध्याय १०७ आर्यसमाज के नेता ला. देवराज और मुन्शीरामजी से वार्तालाप ज़ीरा के देवमन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य सम्पूर्ण कराकर आप जीरा से नकोदर होते हुए जालन्धर में पधारे। वहां पर एक दिन आर्यसमाज के प्रसिद्ध नेता ला० देवराज और ला० मुन्शीरामजी [ जो कि बाद में स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए ] आपके दर्शनार्थ आये । शिष्टाचार के अनन्तर कुछ प्रासंगिक वार्तालाप के शुरू होते ही ला० देवराजजी ने आपसे पूछा कि स्वामीजी ! जगत में एक परमेश्वर के होते हुए इतने मतमतान्तर क्यों बढ़ गये ? आचार्य श्री — स्मित मुख से फर्माते हुए बोले- आप स्वयं विज्ञ हैं खुद ही विचारें आप दोनों साहब स्वामी दयानन्दजी के परम भक्त और उनके मत के सर्वेसर्वा समर्थक हैं, फिर भी आप दोनों के विचारों में विभिन्नता है, एक मास पार्टी के नेता दूसरे घास पार्टी के मुखिया हैं । एक मांस भक्षण को शास्त्र fafe मानते हैं दूसरे उसको शास्त्र विरुद्ध बतलाते हैं, क्या ये दो विभिन्न विचार आपको स्वामीजी की ओर से मिले हैं या आप लोगों ने अपनी बुद्धि से कल्पना करलिये हैं ? स्वामीजी अथवा वेदों का कथन तो सबके लिये एक जैसा ही होगा, फिर यह विचार भेद क्यों ? ईश्वर दो या अनेक इसमें उसका क्या दखल है - वह तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी और पूर्ण काम है, वह तो प्रकाश देने वाले दीपक की भांति केवल साक्षी रूप है फिर इन बुद्धिगत विचार भेदों में [ जोकि मानव बुद्धि की कल्पना रूप हैं ] ईश्वर को बीच में लाने की क्या आवश्यकता ? हां अगर ईश्वर को इस सृष्टि का रचयिता अथच कर्ताधर्ता स्वीकार करना हो तब तो ईश्वर ही इन सारे मत भेदों का उत्तरदायी ठहरता है, कारण कि कर्तृत्व में इच्छा और प्रयत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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