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________________ ३६८ नवयुग निर्माता हमारे असूया नियम ये हैं [१] किसी भी जीव को तकलीफ न देना, यहां तक कि हरी सब्जी और हरे वृक्ष तक को भी स्पर्श नहीं करना । [२] झूठ नहीं बोलना । [३] चोरी नहीं करना । [४] सदा ब्रह्मचर्य का पालन करना, यहां तक कि स्त्री के कपड़े तक का स्पर्श भी नहीं करना । [५] किसी भी वस्तु पर ममत्व नहीं करना । हमारे यह पांच असूल हैं, इनमें किसी प्रकार की बाधा न आते हुए यदि हमको मांगने की जरूरत न पड़े तो हम इस भिक्षावृत्ति को छोड़ देंगे । मुन्शीजी - ( बहुत सोच विचार करने के बाद ) आप जंगल में जाकर वहां से सूखी लकड़ी चुन कर ले आवें उन्हें बेचकर अपना निर्वाह करें। इसमें आपके नियमों में कोई बाधा नहीं आयगी । आचार्यश्री - ( हंसते हुए)- मुन्शीजी ! आप तो बहुत दूर चलेगये, जंगल की सूखी लकड़ियों का भी कोई मालिक है कि नहीं ? मुन्शीजी - मालिक तो अवश्य होता है, या तो जिसकी जमीन में हो वह मालिक अथवा सरकार मालिक है । आचार्यश्री - कोई भी मालिक हो उसके पूछे बगैर तो हम उन्हें उठा नहीं सकते, अगर उठावें तो वह चोरी है, चोरी का हमें सर्वथा त्याग है । मुन्शीजी - आप जमीन के मालिक से मांग लेवें । श्राचार्यश्री - मुन्शीजी ! आपने सोच विचार करने के बाद उपाय तो खूब बतलाया परन्तु मांगना हमारे सिर पर से न टला ? और सुनो! आपके इस उपाय को काम में लायें तो हमारा कोई भी असूल नियम कायम नहीं रहता । लकड़ियों के पैसे ही तो वसूल करने होंगे, मगर पैसे को हम छूते नहीं, फिर कल्पना करो एक आदमी चार आने देता है और दूसरा पांच आने दे रहा है तो चार की बजाय पांच आने वाले को देने का लोभ मन में जागृत होगा, और संग्रह की वृत्ति बढ़ेगी, मगर हम खाने पीने की कोई वस्तु भी रात को अपने पास नहीं रखते । कहां तक गिनायें, हम निर्दोष भिक्षा लेते हैं, आपके उपाय का अनुसरण करने से तो हमें वह मिल ही नहीं सकती, हमारे लिये बनाई गई वस्तु को हम ग्रहण नहीं करते, स्वयं अग्नि नहीं जलाते, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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