SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ नवयुग निर्माता . रोना धोना या पीटना सुनते नहीं फिर वे उनके आगे दिखावा क्यों करते हैं ? क्या यह बुत परस्ती नहीं ? इसके सिवा दुलदुल के नाम से जो घोड़ा सजाकर निकाला जाता है और हज़ारों लोग उसके पीछे चलते हैं उसे उस वक्त बड़ा मुतवर्रक पूज्य-समझा जाता है ऐसा क्यों ? क्या वह घोड़ा अन्य दूसरे घोड़ों से कोई खास खूबी रखता है | वास्तव में वह घोड़ा उन पूज्य पुरुषों के घोड़े का प्रतीक है जिन्हें आप लोग अपने मजहबी पेशवा समझते और मानते हैं । और लीजिये ! आप कुरान शरीफ को खुदा का कलाम मानते और उसकी अधिक से अधिक इज्जत करते हैं उसे जमीन पर नहीं रखते नापाक - अपवित्र हाथों से उसका स्पर्श नहीं करते, क्या वह कागज और स्याही के सिवा और कोई चीज है, फिर आप लोगों के मनमें उसकी इज्जत क्यों ? इसीलिये कि वह खुदा का कलाम है - ईश्वर की वाणी है, मगर वास्तव में वह एक प्रकार की शकल रखने वाला बुत ही तो है ? यथार्थ बात तो यह है कि कोई भी व्यक्ति बुतपरस्त नहीं, बुत का पुजारी नहीं किन्तु जिसका वह बुत है उसका पुजारी है -बुत तो उसकी पूजा के लिये एक निमित्त है इसलिये Satara मूर्ति की उपासना करते हैं वे भी मूर्ति की नहीं अपितु मूर्ति के द्वारा मूर्ति वाले की पूजा या उपासना करते हैं । कोई भी व्यक्ति फिर वह हिन्दू हो या मुसलमान सनातनी हो या समाजी जैन हो या और कोई सबके सब आदर्श की उपासना करते हैं बुत की नहीं । सब की उपासना का ढंग अलग २ है, किसी ने मंदिर उसमें प्रभु की मूर्ति विराजमान करके प्रभु की उपासना का मार्ग स्वीकार किया और किसी ने बड़ी भारी मस्जिद और गिरजा को ही परमेश्वर की उपासना के लिये निर्माण कर लिया । मुसलमान और ईसाई लोग मस्जिद और गिरजे में जाकर प्रभु की उपासना करते हैं जब कि अन्य हिन्दु और जैन लोग मंदिर में बैठकर प्रभु की भक्ति करते हैं । फिर एक को बुतपरस्त कहना और दूसरे को खुदापरस्त मानना हमारी समझ में तो सरासर बे इन्साफी है । | रही हमारे दूसरे फिर्के वालों की बात, सो इसको जन्मे तो अभी बहुत ही थोड़ा समय हुआ है । इसके जन्म से तो सदियों पहले जैन परम्परा में मूर्ति की उपासना प्रचलित थी, सोलवीं सदी से पहले तो इसका नामोनिशान भी नहीं था। फिर गुरु के श्रासन को पांच लग जाने से "गुरु की आशातना हुई " मानने वाला पंथ मूर्तिवाद का विरोध करे इससे अधिक उपहास्यजनक बात और क्या हो सकती है ? इस प्रकार आर्य समाज भी कहने को तो मूर्ति के विरोधी हैं मगर स्वामी दयानन्द की मूर्ति का कोई अपमान करदे तो मरने मारने को तैयार हो जाते हैं । यही दशा अन्य मूर्ति विरोधी समुदाय की है । मुन्शी साहब - वाह महाराज ! आपने तो हमें लाजवाब कर दिया। आपने हम लोगों के सामने जो दलीलें पेश की हैं उनसे तो यही साबित होता है कि जिनको हम लोग बुतपरस्त कहते हैं वे भी हकपरस्त या खुदापरस्त ही हैं। तदनन्तर मुन्शी अबदुल रहमान ( इनको मुन्शी और हकीमजी भी कहने में आता था ) ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy