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________________ ब्राह्मण युवक गुरु चरणों में ३५७ सम्पर्क में आने पर मुझे जिन बातों का पता चला है वे मेरे लिये बिलकुल नवीन हैं और मैंने इस प्रकार के महापुरुष का अाज से पहले कभी दर्शन नहीं किया। इनकी प्रभावशाली आकर्षक मुद्रा, शान्त प्रकृति और वचन गांभीर्य बिना किसी प्रकार की प्रेरणा से श्रोता को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। इनके त्याग और तपस्वी जीवन के साथ इनकी ज्ञान सम्पत्ति की तरफ ध्यान देते हुए तो मन इनके चरणों में झुक जाने की सबल प्रेरणा दे रहा है । ऐसे पुण्यशाली महापुरुष का मिलना निस्सन्देह पुण्यातिरेक से ही प्राप्त होता है। मैंने अनेक विद्वान साधुओं और पंडितों के भाषण सुने, उनमें आर्यसमाज की प्रशंसा और अन्य सब मतों की निन्दा के सिवा और कुछ नहीं सुना । परन्तु आपका प्रवचन इन सब दोषों से अछूता पाया, उसमें न तो किसी मत की निन्दा और न ही किसी मत विशेष के लिये किसी प्रकार के आग्रह की प्रेरणा दिखाई दी। इन सब बातों के अतिरिक्त आपकी विषयविवेचन की शैली में जिस प्रकार का तलस्पर्शी स्पष्टीकरण देखने में आया वह तो आपकी प्रतिभा को ही आभारी है । इसलिये क्यों न ऐसे महापुरुष की चरणोपासना में मुझे लग जाना चाहिये। ___एक दिन एकान्त में आचार्यश्री से कृष्णचन्द्र बोला-महाराज ! एक प्रार्थना करना चाहता हूँ यदि आप स्वीकार करें। आचार्यश्री-कहो क्या कहना चाहते हो ? कृष्णचन्द्र-आपके चरणों की उपासना चाहता हूँ, आप मुझे मंत्र दीक्षा देकर अपने चरणों का उपासक बना लीजिये ! आचार्यश्री-तुम अभी कुछ दिन तक देवगुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने का यत्न करो, तथा अपने मन में रहे हुए बाकी संशयों को परस्पर के विचार विनिमय के द्वारा ठीक करलो, फिर तुमको मंत्र दीक्षा भी दे दी जावेगी। कृष्णचन्द्र -गुरुदेव ! अब तो मन में इतना धैर्य नहीं रहा, आपश्री के उपदेशामृत से धुलकर निर्मल हुए मन पर अंकित हुए वीतराग धर्म के रेखा-चित्रों को सम्यक्त्व के गूढ़े रंगों से भर देने की कृपा करें। पंडित कृष्णचन्द्र की आग्रह भरी प्रार्थना से परम दयालु आचार्यश्री ने उसको श्रावक धर्म के नियमों को समझाते हुए सर्व मंत्र शिरोमणि पंचपरमेष्टि नमस्कार मंत्र का उपदेश देकर सच्चा श्रमणोपासक बनाया । गुरुजनों के सदुपदेश से धर्म के रंग में रंगे हुए पंडित कृष्णचन्द्रजी ने जीवन पर्यन्त जैनधर्म का सम्यक्तया पालन किया और प्रचार किया। वे पटियाला रियासत में वकालत का धंधा करते रहे और वहां के प्रसिद्ध वकीलों की श्रेणी में अग्रणी रहे एवं उन्होंने आर्यसमाज के समय के कतिपय सहचारी मित्रों को जैनधर्म में प्रविष्ट कराने का श्रेय भी प्राप्त किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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