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अध्याय १०१
"ब्राह्मण युवक गुरु चरणों में"
अम्बाला से विहार करके ग्रामानुग्राम विचरते हुए आचार्यश्री शहर लुधियाने में पधारे । यहां पर आपके पास सनातनधर्मी आर्यसमाजी आदि कई एक अन्य मतावलंबी लोग आते और तरह २ के प्रश्न पूछते । आपश्री बड़ी शान्ति और मर्यादा से उनके प्रश्नों का ऐसा समाधान पूर्ण उत्तर देते, जिससे वे सन्तुष्ट
और निरुत्तर हो जाते । उन प्रश्नकर्ताओं में एक पढ़ा लिखा युवक ब्राह्मण भी साथ में होता, उसका नाम था कृष्णचन्द्र । वह अच्छा समझदार लड़का था और बोलने तथा बातचीत करने में बड़ा होशियार था। वह आर्यसमाजी विचारों में रंगा हुआ और आर्यसमाज के नवीन प्रचारकों में से एक था।
वह जैसा सुन्दर था वैसा ही बोलने में भी बड़ा पटु था। जिस वक्त वह आर्य समाज के प्लेटफार्म पर व्याख्यान देता उस वक्त लोग बड़े चाव से उसका भाषण सुनते । वह प्रश्न करने वालों के साथ प्रतिदिन पाता और उनके प्रश्नों तथा महाराजश्री के उत्तरों को चुपचाप बैठा सुनता रहता। प्रश्नोत्तरों के सिलसिले में प्रथम दिन के सिवा उसने फिर भाग नहीं लिया। संसार में सभी जीव एक जैसे नहीं होते। यदि संसार में दुराग्रही या दुर्लभबोधी जीवों की संख्या अधिक है तो सरलात्मा और सुलभवोधी जीवों की भी कमी नहीं है। प्रश्नकर्ताओं के प्रश्नों को ध्यानपूर्वक सुन कर प्राचार्यश्री के द्वारा उनका युक्तियुक्त, सचोट और हृदयस्पर्शी उत्तर सुनकर युवक कृष्णचन्द्र के हृदय में भारी परिवर्तन होना शुरू होगया। वह वर्तमान आर्यसमाज के जिन मन्तव्यों को सर्वथा सत्य समझता था, उसे वे बिल्कुल अज्ञानमूलक अतएव मिथ्या भान होने लगे। प्राचार्यश्री के प्रवचनों ने उसके हृदय में एक विचित्र प्रकार की हलचल पैदा करदी! यह एक दिन मन ही मन सोचने लगा कि मैंने अपने बाप दादा के माने हुए सनातन धर्म को इसलिए त्यागा कि उसके मन्तव्य युक्तियुक्त नहीं और स्वामी दयानन्दजी के मन्तव्यों को इसलिए अपनाया कि वे युक्तियुक्त हैं, परन्तु अब तो वे सनातन धर्म के सिद्धान्तों से भी बहुत नीची कोटि के प्रतीत होते हैं। फिर मेरे जैसे सत्यगवेषक के लिए उन्हें पकड़े रहना कैसे उचित हो सकता है ? आज, कितने दिनों से जिस महापुरुष के
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