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अध्याय ६३
"स्वप्नों की बोली का निर्णय"
-स्ट
पर्युषणा पर्व के आराधन में १४ स्वप्नों के उतारने की आवश्यकता प्रतीत होने से वहां के श्रीसंघ ने साधारण खाते से स्वप्ने बनाने और उनकी उपज को साधारण खाते में लेजाने का ठराव-प्रस्ताव पास करके गुरुदेव से पूछा कि महाराज ! इसमें कोई हरकत तो नहीं, अर्थात् कोई शास्त्रीय बाधा तो नहीं है ? तब श्राचार्य श्री ने फर्माया कि इसमें हरकत की कौनसी बात है । संघ की चीज है, संघ ठराव करता है और संघ ने ही उसपर अमल करना है, फिर इसमें किसी प्रकार की हरकत का प्रश्न ही नहीं रहता । आचार्य श्री के फर्माने के बाद सर्व श्रीसंघ ने एक मत होकर पास किया कि स्वप्नों की बोली से जो उपज हो उसे साधारण खाते में जमा किया जावे । इस ठराव को संघ के चौपड़े में दर्ज करदिया गया । श्रीसंघ ने जो ठराव पास करके अपने चौपड़े में लिखा, उसका हिन्दी में भावार्थ इस प्रकार है
॥ श्री वीतरागाय नमः ।।
सम्वत् १६४३ ( हिन्दी १६४४ ) भादवा वदि १ तथा २ शनिवार
श्री विगतवार खाता
श्रावण वदि अमावस्या के दिन श्री महावीर स्वामी-जिनेश्वर के जन्म वाले दिन दूसरे व्याख्यान में जन्म वाचन के पूर्व चान्दी के १४ स्वप्ने, सागर गच्छीय श्रीसंघ के उपाश्रय में श्री मुनि महाराज श्री
आत्मारामजी पधारे तब सर्व प्रथम उतारे गये । इन स्वप्नों के उतारने के समय बोली गई घी की बोली की उपज-अमिदनी को साधारण खाते में लेजाने का ठराव श्रीसंघ करता है और घी, मण एक के अढाइ रुपया के हिसाब से लेने का निश्चय करता है, यह साधारण खाते में जमा करना ( पाना पांच )।
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